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________________ ।। श्रीः ।। विषयानुक्रमणी विषया: प्रस्तावना (कुलपतिमहोदयस्य) भूमिका (सम्पादकस्य) वृत्तिकारीयं प्रतिज्ञावचनम् १-३ [वररुचि कात्यायन द्वारा कृत्सूत्रों की रचना, शर्ववर्मा द्वारा कृत्सूत्रों की रचना न करने में हेतु, सम्पादक गुरुनाथ विद्यानिधि की टिप्पणी, कृत्तद्धित-समास का अभिधानलक्षण होना, शब्दार्थभेद के कारण, कात्यायन द्वारा वररुचि - शरीर धारण करने के सम्बन्ध में किंवदन्ती] | प्रथमः सिद्धिपादः पृष्ठसंख्या ४- १४१ [सिद्धि शब्द से मङ्गलाचरण, इज्वद्भाव, अतिदेश से होने वाले कार्य, निमित्त आदि अतिदेश, वद्ग्रहण का सुखार्थ होना, अनुबन्धग्रहण का सुखार्थ होना, सभी अतिदेशों में कार्यातिदेश की प्रधानता, नकार को तकारादेश, रूढि से सिद्धि, कुछ कार्यों का निषेध, सूत्रकार - वाक्यकारवृत्तिकार के अभिमत, मुख्यार्थबाध से लक्षणा, टीका-पञ्जिका में पूर्वपक्षसिद्धान्त, जाति-व्यक्ति पक्षों का आश्रयण, सार्वधातुक की तरह कार्य, यण्वत् कार्य, सागर आदि आचार्यों के अभिमत, गुणादेश, प्रतिपत्तिगौरवलाघव, मन्दमतिबोधार्थ अनुबन्धयोजना, विपरीत नियम की सम्भावना, विरोधी अर्थ में परशब्द का प्रयोग, पाणिनि - वररुचि - भाष्यकार के मत, उभयविध मतों की प्रामाणिकता, दण्डक धातुएँ, चेक्रीयितलुगन्त का छान्दसत्व, आकार को ह्रस्वादेश, गरीयसी प्रतिपत्ति, आद्य वृत्तिकारों के उदाहरण, वृत्तिकारों द्वारा वररुचि के अभिप्राय का वर्णन, सूत्रकारभाषित का प्रलाप, अमागम, प्रतिपत्तिलाघव, क्षीरस्वामी द्वारा 'गोत्र' का अर्थ, मकारागम, सूत्रकार- वाक्यकार - भाष्यकार का अभिमत, निपातनविधि, तकारागम, क्रिया का साधनायत्त होना, धातु का कर्ता आदि के साथ सम्बन्ध, स्वरवद्भाव, नैयासिक मत, 'वि' का लोप, शास्त्रव्यवहार से प्रकृति - प्रत्यय आदि की कल्पना, य्-व् का लोप, 'इन्' प्रत्यय का लोप, शिष्यभ्रान्ति, प्रक्रियागौरव, 'अय्' आदेश, भूतपूर्वगति, आकारादेश, दीर्घ, श्रुतपाणि का मत, संज्ञापूर्वक निर्देश की अनित्यता, 'स्फी' आदेश, 'पी' आदेश, स्वाङ्ग की परिभाषा, निपातनविधि, कर्मत्व का परिष्कार, ऋषि
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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