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कातन्त्रव्याकरणम्
'खश्' प्रत्यय, मकारागम, स्त्रीलिङ्ग में 'आ' प्रत्यय तथा विभक्तिकार्य ।
२. कूलमुद्वहः समुद्रः । कूल - उद् - वह् - खश् - सि । 'कूल' शब्द के उपपद में रहने पर 'उद्' उपसर्गपूर्वक 'वह प्रापणे' (११६१०) धातु से खश् प्रत्यय आदि कार्य पूर्ववत् ।।१०४२।।
१०४३. वहलिहाभ्रंलिहपरन्तपेरम्मदाश्च [४।३।३८] [सूत्रार्थ]
'वहंलिह - अभंलिह - परन्तप - इरम्मद' शब्द खश्-प्रत्ययान्त निपातन से सिद्ध होते हैं ।।१०४३।
[दु० वृ०]
एते खशप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । वहंलिहा गौः । अभ्रंलिहो वायः । परन्तापयतीति परन्तपः शक्रः । इरया माद्यतीति इरम्मदो हस्ती । चकारात् – वातमजन्तीति वातमजा मृगाः । शर्धं जहाति शर्धञ्जहा माषा: ।।१०४३।
[क०च०]
वहं०। 'स्कन्धप्रदेशस्तु वहः' इत्यमरः । इरया मदिरया, शों वायरिति ।।१०४३।
[समीक्षा]
‘वहलिह - अभ्रंलिह - परन्तप - इरम्मद' शब्दों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में प्रत्ययविधान किया गया है । इन चार शब्दों को पाणिनि ने ३ सूत्रों में पढ़ा है – “वहाभ्रे लिहः, उग्रम्पश्येरम्मदपाणिन्धमाश्च, द्विषत्परयोस्तापेः' (अ० ३।२।३२, ३७, ३९)। इनके अनुसार 'वहलिह - अभ्रंलिह' शब्दों में 'खश्' प्रत्यय, ‘परन्तप' शब्द में 'खच्' प्रत्यय होता है तथा 'इंरप्मद' शब्द निपातन से सिद्ध होता है । यहाँ जो भेद परिलक्षित होता है, वह प्राय: अपने-अपने व्याकरण की प्रक्रिया के अनुसार है। अत: प्राय: उभयत्र समानता ही है ।
[रूपसिद्धि]
१. वहलिहा गौः। वहम् - लिह + खश् + आ + सि । वहं लेढि । 'वह' शब्द के उपपद में रहने पर 'लिह आस्वादने' (२।६३) धातु से 'खश्' प्रत्यय, मकारागम, स्त्रीलिङ्ग में 'आ' प्रत्यय तथा विभक्तिकार्य ।
२. अभ्रंलिहो वायुः। अभ्रम् - लिह् + खश् + सि । अभ्रं लेढि . । 'अभ्र' के उपपद में रहने पर 'लिह' धातु से निपातनविधि पूर्ववत् ।
३. परन्तपः शक्रः। परम् + तापि + सि । परन्तापयति । 'पर' शब्द के उपपद में रहने पर इन्प्रत्ययान्त 'तप सन्तापे' (१।१३३) धातु से निपातनविधि प्राय: पूर्ववत्।
४. इरम्मदो हस्ती । इरा + मदी + खश् + सि । इरया माद्यति । 'इरा' शब्द के उपपद में रहने पर 'मदी हर्षे' (३।४८) धातु से निपातनविधि पूर्ववत् ।।१०४३।