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________________ २२३ चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये द्वितीयो धातुपादः २२३ १००४. आशिष्यकः [४।२।६५] [सूत्रार्थ आशीर्वाद अर्थ के विवक्षित होने पर धातु से 'अक' प्रत्यय होता है ।।१००४। [दु० वृ०] आशंसायां गम्यमानायां धातोरकः प्रत्ययो भवति। जीवतात् - जीवकः। नन्दतात्-नन्दकः।।१००४। [दु० टी०] आशि० । आशीः इष्टार्थस्याप्राप्तस्य प्राप्तीच्छा, सा चेत् क्रियाविशेषकर्तृविषया, अस्याः क्रियायाः कर्ता भूयादित्यर्थः ॥१००४। [समीक्षा] आशीर्वाद अर्थ के गम्यमान होने पर 'जीवकः, नन्दक:' आदि शब्दरूपों के सिद्धयर्थ कातन्त्रकार ने साक्षात् 'अक' प्रत्यय तथा पाणिनि ने 'वुन्' प्रत्यय एवं '' को 'अक' आदेश किया है। पाणिनि का सूत्र है-"आशिषि च" (अ० ३।१।१५०)। इस प्रकार प्रत्यय-आदेश के कारण पाणिनीय में गौरव तथा केवल प्रत्यय का विधान करने के कारण कातन्त्र में लाघव कहा जा सकता है । [विशेष वचन १. आशीरिष्टार्थस्याप्राप्तस्य प्राप्तीच्छा (दु० टी०) । [रूपसिद्धि] १. जीवकः। जीव् + अक + सि। जीवतात्। 'जीव बल प्राणधारणे' (१।१९२) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा ‘अक' प्रत्यय तथा विभक्तिकार्य । . २. नन्दकः । नन्द् + अक + सि । नन्दतात् । 'टु नदि समृद्धौ' (१।२५) धातु से 'अक' प्रत्यय आदि कार्य पूर्ववत् ।।१००४। १००५. पुत्रसृल्वां साधुकारिणि [४।२।६६] [सूत्रार्थ] 'साधुकारी' अर्थ के विवक्षित होने पर '-स्रु-सृ-लू' धातुओं से 'अक' प्रत्यय होता है ।।१००५। [दु० वृ०] एषां साधुकारिण्यभिधेयेऽक: प्रत्ययो भवति । साधु प्रवते साधुप्रवकः। एवं स्रवकः, सरकः, लवकः । साधुकरणं शिल्पमेव, एतत् स्त्रियामाप्रपञ्चार्थम्। साधुकारिणीति किम् ? प्रोता ॥१००५। ।।इत्याचार्यदुर्गसिंहप्रणीतायां दौर्गसिंह्यां वृत्तौ चतुर्थे कृदध्याये द्वितीयो धातुपादः समाप्तः।।
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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