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चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये द्वितीयो धातुपादः
२१५ ७. पारयः। पृ + इन् + श + सि । 'पृ पालनपूरणयोः' (८।१६) धातु से ‘इन्' प्रत्यय आदि कार्य पूर्ववत् ।
८. लिम्पः। लिप् + श + सि । लिम्पति । 'लिप उपदेहे' (५।१०) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'श' प्रत्यय, “मुचादेरागमो नकार: स्वरादनि विकरणे' (३।५।३०) से नकारागम तथा अन्य कार्य पूर्ववत् ।
९. विन्दः। विद् + श + सि । विन्दति । 'विद्ल लाभे' (५।९) धातु से 'श' प्रत्यय आदि कार्य पूर्ववत् ।।९९३।
९९४. वा ज्वलादिदुनीभुवो णः [४।२।५५] [सूत्रार्थ]
किसी उपसर्ग के उपपद में न रहने पर ज्वलादिगणपठित धातुओं से तथा 'दुनी-भू' धातुओं से भी वैकल्पिक 'ण' प्रत्यय होता है ।।९९४।
[दु० वृ०]
ज्वलादिभ्यो दुनोतेर्नयतेर्भवतेश्चानुपसर्गे णो भवति वा । ज्वलः, ज्वालः । चलः, चालः । कसपर्यन्ता ज्वलादयो गणे वृत्करणात् । दवः, दाव: । नयः, नाय: (इति केचिन्नेच्छन्ति) । भव:, भावः । अनुपसर्गे इति किम् ? प्रज्वल:, प्रदवः, प्रणयः, प्रभवः ||९९४।
[दु० टी०]
वा ज्वला०। कसत्यादि। 'कस गतौ' (१५६८)। घटादिपठितानां ज्वलादीनामग्रहणम् , अनन्यार्थत्वात् पाठस्य।।९९४।
[समीक्षा]
कातन्त्रकार ने ज्वलादिगणपठित तथा दु - नी – भू धातुओं से 'ण' प्रत्यय का विधान विकल्प से किया है । अत: 'ज्वाल:-ज्वलः' इत्यादि की तरह ‘दाव:-दव:, नाय:-नयः, भाव:-भवः' भी दो-दो रूप सिद्ध होते हैं । परन्तु पाणिनि ने ज्वलादि धातुओं से तो विकल्प-विधान घोषित किया है, 'दु-नी' धातुओं से नहीं । अत: तदर्थ पृथक् सूत्र बनाया है । 'भू' धातु से वैकल्पिक ‘ण' प्रत्यय का विधान वार्त्तिककार ने किया है । अत: पाणिनि के दो सूत्र हैं और एक वार्त्तिक है – “ज्वलितिकसन्तेभ्यो णः, दुन्योरनुपसर्गे, भवतेश्चेति वक्तव्यम्' (अ० ३।१।१४०, १४३-वा० सू०) ।
[विशेष वचन] १. कसपर्यन्ता ज्वलादयो गणे वृत्करणात् (दु० वृ०) । [रूपसिद्धि
१. ज्वलः, ज्वालः। ज्वल् + अच् , ण + सि । 'ज्वल दीप्तौ' (१५१९, ५४१) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा वैकल्पिक 'ण' प्रत्यय, इज्वद्भाव, “अस्योपधाया