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कातन्त्रव्याकरणम्
[वि० प०]
क्तक्तः। ननु च संज्ञाविधानमुत्पत्तिमन्तरेण न सिध्यतीति। न ह्यनुत्पन्नस्य सज्ञा नाम, नाप्युत्पत्तिविधानं सज्ञामन्तरेण शास्त्रे सिध्यतीति। न हि नामग्राहमुत्पत्तयो भवन्त्यो नामान्तरेण भवितुमर्हन्तीति। इतरेतराश्रयदोषानेदं संज्ञाविधानम, नापि निष्ठेत्युत्पत्तिविधानं सिध्यतीत्याह-शब्दस्येत्यादि। सिद्धानां सज्ञासज्ञिनामन्वाख्यानमिदं नाधुनिकं करणमित्यर्थः। 'शीर्णः' इत्यादि। “रानिष्ठातो न०'' (४।६।१०१) इत्यादिना "दाद् दस्य च" (४।६।१०२) इति च निष्ठातकारस्य नत्वं फुलमिति।।९३९।। ।। इत्याचार्यश्रीत्रिलोचनदासकृतायां कातन्त्रवृत्तिपञ्जिकायां चतुर्थे कृदध्याये प्रथमः
सिद्धिपादः समाप्तः।।
[समीक्षा
'क्त-क्तवन्तु' प्रत्यय भूतकाल में होते हैं, इसके अतिरिक्त 'क्त' प्रत्यय भाव-कर्म अर्थों में तथा 'क्तवन्तु' प्रत्यय भाव-कर्ता अर्थों में उपपन्न होता है। कातन्त्रटीकाकार आचार्य दुर्गसिंह के अनुसार यह संज्ञा पूर्वाचार्यों द्वारा विहित है—'निरन्वया स्त्रीलिङ्गा पूर्वाचार्यसंज्ञेयं क्त-क्तवन्त्वोर्लिङ्गसंख्याभ्यां न युज्यते, स्वभावात्। काशकृत्स्नव्याकरण में इस संज्ञा के उपलब्ध होने से इसकी प्राचीनता तथा प्रामाणिकता सिद्ध होती है। काशकृत्स्नि तथा पाणिनि ने 'क्तवतु' प्रत्यय नकाररहित माना है, परन्तु कातन्त्रकार नकारघटित प्रत्यय करते हैं, जिससे ‘कृतवन्तौ, कृतवन्तः' इत्यादि शब्दरूपों की सिद्धि में लाघव होता है। काशकृत्स्नि तथा पाणिनि का सूत्र है—“क्तक्तवतू निष्ठा' (का० धा० व्या०,सूत्र १११; अ०१।१।२६)। इसे अन्वर्थसंज्ञा स्वीकार किया जाता है- नितरां तिष्ठतीति निष्ठा। छान्दोग्योपनिषद् (७।२०।१) के अनुसार गुरुशुश्रूषा अर्थ में निष्ठा शब्द का प्रयोग हुआ है-"यदा वै निस्तिष्ठत्यथ श्रद्दधाति, नानिस्तिष्ठश्रद्दधाति' (छा० उ० ७।२०।१)।
'निष्ठा गुरुशुश्रूषादिः' (शां० भा०)।
प्रक्रियासर्वस्वकार नारायणभट्ट ने 'निष्ठा' का अर्थ परिसमाप्ति या भूतकाल माना है, जिसके अनुसार 'क्त-क्तवन्तु' प्रत्यय भूतकाल में ही सम्पन्न होते हैं
निष्ठा परिसमाप्तिः स्यात् सा च भूतार्थयोर्द्वयोः। अर्थः स्यादित्यभेदेन निष्ठाख्यौ प्रत्ययावपि।।
(प्र० स० - समासखण्ड)। भूतकाल में निष्ठा का विधान करने वाले पाणिनि तथा सभी प्राणियों का अनुरञ्जन करने वाले जयादित्य को राजतरङ्गिणीकार कल्हण ने समान ही माना है
कृतविप्रोपसर्गस्य भूतनिष्ठाविधायिनः। श्रीजयापीडदेवस्य पाणिनेश्च किमन्तरम्।।
(रा० त० ४।६३७)।