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________________ चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये प्रथमः सिद्धिपादः १०१ [समीक्षा 'वेञ् ' धातु के क्विपप्रत्ययान्त रूप 'ऊ:' में दीर्घविधान कातन्त्रकार ने नियमार्थ किया है। अतः पृथक् सूत्र बनाना पड़ा । पाणिनि के अनुसार यहाँ दीर्घविधान “अन्येषामपि दृश्यते'' (अ० ६।३।१३७) सूत्र से प्रवृत्त होगा। यद्यपि पृथक् सूत्र बनाने से कातन्त्र का गौरव कहा जा सकता है, परन्तु एक विशेष विधि (नियम) को दिखाने के कारण यह दोषाधायक नहीं है। [विशेष वचन] १. वेज एव क्वाविति न विपरीतनियम: (दु०टी०; वि० प०)। [रूपसिद्धि] १. ऊः। वेञ् + क्विप् +सि। 'वेञ् तन्तुसन्ताने' (१।६११) धातु से 'क्विप्' प्रत्यय, सर्वापहारी लोप, “स्वपिवचि०' (३।४।३) से सम्प्रसारण, प्रकृत सूत्र से दीर्घ तथा विभक्तिकार्य। २-३. उवौ, उवः। वेञ् + क्विप् + औ, जस् । 'वेञ् ' धातु से क्विप् , सर्वापहारी लोप, सम्प्रसारण, दीर्घ ऊकार को उव् आदेश तथा विभक्तिकार्य ।।९०८। ९०९. ध्याप्योः [४।१।५४] [सूत्रार्थ क्विप् प्रत्यय के परे रहते ‘ध्यै-प्यै' धातुओं में प्रवृत्त संप्रसारण को दीर्घ आदेश होता है।।९०९। [दु० वृ०] ध्याप्योः सम्प्रसारणं क्वौ परे दीर्घमापद्यते। धीः, आपी:। वचनात् सम्प्रसारणं सिद्धम् ।।९०९। [दु० टी०] ध्या०। वचनादित्यादि। ध्यायते: प्यायतेर्न केनचित् सम्प्रसारणमुक्तम् , अत इदमेव वचनमनुमापकमित्यर्थः। केचिद् इदं न पठन्ति। 'लोपस्वरादेशयोः स्वरादेशविधिर्बलवान्' (का० परि० ३५) इति दधाति-पिबत्योरपीत्वे पश्चात् क्विब्लोप इति। 'कीलालपा:' इति विच दृश्यते। तथाहि "पञ्चमोऽच्चातः" इत्यद्भावो नास्ति।।९०९। [वि०प०] ध्या०। 'स्मृ ध्यै चिन्तायाम् , प्यैङ् वृद्धौ' (१।२७२, ४६४)। कथमनयोः सम्प्रसारणमित्याह-वचनादिति। न हि अन्यथा दीर्घ उपपद्यते इति भावः।।९०९। [समीक्षा] ‘धी:, आपी:' शब्दरूपों में सम्प्रसारण-दीर्घ करने के लिए यह स्वतन्त्र सूत्र बनाया गया है। पाणिनीय व्याकरण में इस प्रकार का कोई सूत्र नहीं है। “ध्यायते: Aal
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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