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तृतीये आख्याताध्याये चतुर्थः सम्प्रसारणपाद: वृद्ध्योः प्रसङ्गे आकारः क्रियते, तत्प्रसङ्गश्च प्रत्ययोत्पत्तेः पश्चादेव, यतो विधौ निमित्तसप्तमी ततश्च गुणवृद्ध्योरिति कृतेऽप्येतदुपपद्यते, तस्मात् स्थानग्रहणं बोधयति, यत् प्रत्ययोत्पत्तौ गुणस्यावश्यम्भावः, तस्मिन्नेव विषयिणि आत्वं स्यात्। अत्र प्रत्ययोत्पत्तौ अगुणत्वाद् गुणो नावश्यम्भावी। नाम्यन्तानामनिटामित्यनेनागुणत्वादित्याह-नाम्यन्तानामनिटामित्यादि।। ५६२।
[समीक्षा]
'उपदिदासते' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ 'दी' धातुघटित ईकार को आकारादेश की आवश्यकता होती है। इसे कातन्त्रकार ने स्वतन्त्र सूत्र बनाकर तथा पाणिनि ने “मीनातिमिनोतिदीड ल्यपि च" (अ० ६१५०) में चकार से एच् गुणवृद्धि की अनुवृत्ति करके पूर्ण किया है। कुछ आचार्य आकारादेश नहीं मानते हैं, अत: उनके अनुसार दिदीषते' रूप ही साधु माना जाता है। संभवत: इसी कारण पाणिनीय व्याकरण में स्वतन्त्ररूप से इसका विधान नहीं किया गया है। आकारादेश के विधान से पदकार-भाष्यकार-न्यासकार सहमत प्रतीत होते हैं। टीकाकार का वचन प्रमाण के रूप में प्रस्तुत है - "केचिद् दीङ: सन्यात्त्वं नेच्छन्ति 'दिदीषते' इति भवितव्यम्, तदसत्, न्याससम्मतमेतत्। तथा च पदकारोऽप्याह - दीङ: सन्यात्त्वं वक्तव्यम्, अत्र लालायित: फणीति" (कात० वृ० टी०)।
पूर्ववर्ती सूत्र से प्रकृत सूत्र को पृथक् पढ़े जाने पर टीकाकार ने सहमति व्यक्त की है, परन्तु आचार्य बिल्वेश्वर इसे वैचित्र्यार्थ मानते हैं – “मीनातिमिनोत्योर्गुणवृद्धिस्थाने दीङः सनि च" इति कृतेऽप्यभिमतं सिध्यति किं पृथग् वचनेन ? सत्यम्, वैचित्र्यार्थम्" (बि० टी०)।
[रूपसिद्धि]
१. उपदिदासते। उप + दीङ् + सन् + ते। उपदातुमिच्छति। 'उप' उपसर्गपूर्वक 'दीङ् क्षये' (३।८३) धातु से “धातोर्वा तुमन्तादिच्छतिनैककर्तृकात्'' (३।२।४) सूत्र द्वारा ‘सन्' प्रत्यय, “इवर्णादश्विश्रिडीशीङः'' (३। ७।१४) से अनिट्, “नाम्यन्तानामनिटाम्' (३।५ । १७) से गुणनिषेध, प्रकृत सूत्र से ईकार को आकार, “चण्परोक्षाचेक्रीयितसनन्तेषु' (३।३।७) से 'दा' को द्वित्व, “पूर्वोऽभ्यासः' (३।३।४) से पूर्ववर्ती 'दा' की अभ्याससंज्ञा, "ह्रस्व:' (३ । ३ । १५) से अभ्याससंज्ञक दा-घटित आकार को ह्रस्व, “सन्यवर्णस्य" (३।३।२५) से अकार को इकार, "ते धातवः'' (३।२।१६) से 'उपदिदास' की धातुसंज्ञा, वर्तमानाविभक्तिसंज्ञक आत्मनेपद-प्रथमपुरुष- एकवचन 'ते' प्रत्यय तथा अन् विकरण।। ५६२ ।
५६३. स्मिजिक्रीडामिनि [३।४।२३] [सूत्रार्थ]
‘इन्' प्रत्यय के परे रहते 'स्मि-जि-क्री-इङ्' धातुओं में अन्तिम वर्ण के स्थान में आकारादेश होता है।। ५६३।