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कातन्त्रव्याकरणम्
[समीक्षा]
'सोषुप्यते, सेसिम्यते, वेवीयते' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्धयर्थ सम्प्रसारण कार्य अपेक्षित होता है। इसका विधान दोनों ही आचार्यों ने किया है। पाणिनि का सूत्र है - "स्वपिस्यमिव्येबां यङि'' (अ० ६। १ । १९)। पाणिनि ने 'धातोरेकाचो हलादे: क्रियासमभिहारे यङ्' (अ० ३।१। २२) सूत्र द्वारा यङ् प्रत्यय किया है, परन्तु कातन्त्रकार क्रियासमभिहार अर्थ में धातु से जो 'य' प्रत्यय करते हैं, उसकी उन्होंने चेक्रीयित संज्ञा भी की है – “धातोर्यशब्दश्चेक्रोयितं क्रियासमभिहारे'' (३।२।१४)। इस मान्यता के अनुसार ही 'यङि' तथा 'चेक्रीयिते' निर्देश किए गए हैं।
[रूपसिद्धि]
१. सोषुप्यते। स्वप् + चेक्रीयित–य + ते। पुन: पुनरतिशयेन वा स्वपिति। 'जि ष्वप शये' (२।३२) धातु से क्रियासमभिहार अर्थ में "धातोर्यशब्दश्चेक्रीयितं क्रियासमभिहारे' (३। २। १४) से चेक्रीयितसंज्ञक 'य' प्रत्यय, “न णकारानुबन्धचेक्रीयितयो:' (३।५।७) से अगुण, प्रकृत सूत्र से सम्प्रसारण, द्विवचन, पूर्ववर्ती ‘सुप्' की अभ्याससंज्ञा, पकारलोप, “गुणश्चेक्रीयिते'' (३।३।२८) से अभ्यासघटित उकार को गुण तथा “निमित्तात् प्रत्ययविकारागमस्थ: सः षत्वम्'' (३।८।२६) से सकार को षकारादेश। धातुसंज्ञा, ते-प्रत्यय।
२. सेसिम्यते। स्यम् + य + ते। स्यम् शब्दे' (१ । ५४१) धातु से ‘पुनः पुनरतिशयेन वा स्यमति' इस अर्थ में चेक्रीयितसंज्ञक 'य' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से सम्प्रसारण, द्विर्वचन, अभ्याससंज्ञा, गुण, ‘सेसिम्य' की "ते धातवः'' (३। २। १६) से धातुसंज्ञा, वर्तमानासंज्ञक आत्मनेपद 'ते' प्रत्यय, अन् विकरण। ___३. वेवीयते। व्यञ् + य + ते। 'व्येञ् संवरणे' (१ । ६१२) धातु से क्रियासमभिहार अर्थ में चेक्रीयितसंज्ञक 'य' प्रत्यय, ए को आ, प्रकृतसूत्र से सम्प्रसारण, ईकारादेश, द्विर्वचनादि, गुण, धातुसंज्ञा, ते-प्रत्यय तथा अन् विकरण।। ५४६ ।
५४७. स्वापेश्चणि [३।४।७] [सूत्रार्थ]
इन् प्रत्ययान्त स्वप् धातु (स्वापि) को संप्रसारण होता है, चण् प्रत्यय के पर में रहने पर।। ५४७।
[दु० वृ०]
स्वापेरिनन्तस्य चणि परे सम्प्रसारणं भवति। असूषुपत्। स्वापेरिनन्तस्येति किम् ? स्वापमकरोत् असुषुपत्।। ५४७ ।