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कातन्त्रव्याकरणम्
[समीक्षा
'गुण' सज्ञा प्राय: सभी व्याकरणों में की गई है । अन्तर यह है कि पाणिनि आदि ने 'अ-ए-ओ' की गुणसंज्ञा की है, फलतः उन्हें रपरविधान भी करना पड़ता है । व्याकरण के अनुसार 'गुण-दोष' शब्दों की स्थिति अत्यन्त विलक्षण मानी जाती है, क्योंकि 'गुण' शब्द में गुण आदेश कभी नहीं होता, जब कि 'दोष' शब्द गुण आदेश होने पर ही निष्पन्न हो पाता है । जैसे कर्मों की गति विलक्षण होती है, वैसे ही इस स्थिति को भी विलक्षण माना गया है । 'गुण' शब्द के समान अवयव-अप्रधान आदि अनेक अर्थ किए जाते हैं, परन्तु संज्ञा के रूप में परिभाषित गुण का व्यवहार वृद्धिसंज्ञक आकारादि वर्गों की अपेक्षा अप्रधान अर्थ में किया गया है । जैसे ज्योतिषशास्त्र में संख्यासाम्य के
आधार पर दशमी की दिक्संज्ञा तथा एकादशी की रुद्रसंज्ञा की जाती है, उसी प्रकार 'सत्त्व-रजस्- तमस्' इन तीन गुणों के आधार पर तीन वर्णो की गुणसज्ञा मानी जाती है।
यह संज्ञा 'तरिता, चेता, स्तोता' आदि में तद्भावित वर्गों की तथा ‘पचन्ति, जयन्ति, अहं पचे' इत्यादि में अतद्भावित वर्गों की स्वीकार की जाती है । ओकार वर्ण का अतद्भावितपक्ष में कोई उदाहरण उपलब्ध नहीं होता है ।।
प्राचीन आचार्यों द्वारा गुण संज्ञा का व्यवहार -
निरुक्त शेव इति सुखनाम । शिष्यतेर्वकारो नामकरणोऽन्तस्थान्तरोपलिङ्गी । विभाषितगुण: । शिवमित्यप्यस्य भवति (१०।२।९) ।
काशकृत्स्नधातुव्याख्यान नामिनो गुणः सार्वधातुकार्धधातुकयोः । स्थूलदूरयुवह्रस्वक्षिप्रक्षुद्राणामन्त्यस्वरादेर्लोपो गुणश्च नामिनाम् (सू० २२, १३६)।
ऋप्रातिशाख्य गुणागमादेतनभावि चेतन (११।१०)।
आपिशलि आचार्य का अभिप्रत स्तः, सन्तीत्यादौ सकारमात्रस्य दर्शनात् ‘स् भुवि' इत्येव धातुः पाठ्यः । अस्तीत्यादौ पिति सार्वधातुके अडागमो विधेयः । 'आस्ताम्, आसन्' इत्यादावाडागम: स्याद् इत्यापिशला मन्यन्ते । आगमो गुणवृद्धी इति (प० म० १।३।२२)।
आपिशलिस्तु शब्विकरणे गुण इत्यभिधाय करोतेर्मिदेश्चेत्युक्तवान् (मा० धा० वृ०, पृ० ३५६-५७)।
अर्वाचीन व्याकरणों में गुणसंज्ञा का व्यवहारजैनेन्द्र व्याकरण अदेडेप् (१।१।१६)। हैमशब्दानुशासन गुणोऽरेदोत् (३।३।२) । मुग्धबोधव्याकरण इङोऽरलेङ्णः (सूत्र ८) ।
व्याकरणशास्त्र में 'दीधी-वेवी' धातुओं को तथा इडागम को गुणादेश नहीं होता - दीधीवेवीटाम् (अ० १।१।६), दीधीवेव्योश्च (३।५।१५)। इस आधार पर कहा जाता है कि कुछ व्यक्ति इसी प्रकार के संसार में देखे जाते हैं जिनमें गुण और वृद्धि कभी होती ही नहीं है -