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कातन्त्रव्याकरणम्
[वि० प०] भृजः । आयेत्यादि । अर्वाचीनेषु व्याकरणेषु नैतल्लक्षणमस्तीति भावः ।।८३०। [समीक्षा)
'भृजी भजने' (१।३४६) धातु को पाणिनि ने भी भ्वादिगण में पढ़ा है (भ्वा० ११०) और उससे 'बभृजे' आदि शब्दरूप बनाए हैं, क्योंकि वहाँ जकार के द्वित्व का विधान नहीं है। इसीलिए वृत्तिकार दुर्गसिंह आदि ने शर्ववर्मा के इस द्वित्वविधान को आद्यव्याकरण= पूर्वाचार्यव्याकरण से सम्मत कहा है - 'आद्यव्याकरणमतमेतत् । जिस काशकृत्स्नव्याकरण से प्रभावित यह व्याकरण माना जाता है, उसके धातव्याख्यान में (भृज भर्जने ११४२६) इस धातु का पाठ तो उपलब्ध है, परन्तु उक्त रूप नहीं दिए गए हैं । अत: किसी अन्य प्राचीन व्याकरण का यह मत हो सकता है।
[विशेष वचन] १. आद्यव्याकरणमतमेतत् (द० वृ०)। २. आधुनिकव्याकरणेषु नैतल्लक्षणमस्तीति भावः (दु० टी०; वि० प०)। [रूपसिद्धि]
१. बभृज्जे । भृजी + परोक्षा-ए । 'भृजी भर्जने' (१।३४६) धातु से परोक्षाविभक्तिसंज्ञक प्र० पु०-ए० व० 'ए' प्रत्यय, "चण्परोक्षाचेक्रीयितसनन्तेषु' (३।३।७) से धातु को द्विर्वचन, अभ्यासकार्य तथा प्रकृत सूत्र से जकार को द्वित्व।
२. बभृज्जाते । भृजी + परोक्षा-आते । 'भृजी' धातु से परोक्षासंज्ञक 'आते' प्रत्यय, द्विर्वचनादि तथा प्रकृत सूत्र से जकार को द्वित्व ।
३. बभृज्जिरे । भृजी + परोक्षा-इरे। 'भृजी' धातु से परोक्षासंज्ञक 'इरे' प्रत्यय, धातु को द्विर्वचनादि तथा प्रकृत सूत्र से जकार को द्वित्व ।।८३०।
८३१. अस्य वमोर्दीर्घः [३।८।११] [सूत्रार्थ वकार-मकार के पर रहते अकार को दीर्घ आदेश होता है ।।८३१। [दु० त०]
अकारस्य दीर्घो भवति वमोः परतः। पचामि, पचाव:, पचाम:। दीव्यामि, दीव्याव:, दीव्यामः। अस्येति किम् ? दध्वः, दध्मः। यदि दीर्घ: स्यात् तदा आलोपो न स्यात् । कथं पचमानः, अपचम् ? वमोर्वर्णयोराद्ययोः साहचर्यात् ।।८३१।
[दु० टी०]
अस्य० । ननु प्रत्युदाहरणमिदं युक्तम् ‘चिनमः, जुहमः' इति? सत्यम् । कश्चिदाहतपरस्तत्कालस्य ग्राहकः, अतत्परश्च सामान्यस्य ग्राहक इति। 'दध्वः, दध्म.' इति दीर्घस्य दीर्घत्वबलादभ्यस्तानामाकारस्य लोपो न स्यादित्यर्थः, तत्प्रत्युदाहरणेनैव निरस्यति, आकारादाकारस्य जात्यन्तरत्वात् । कथमित्यादि । आनप्रत्यये मकारांगमे कृते हस्तन्या