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तृतीये आख्याताध्यायेऽष्टमो घुडादिपादः
८२४. षढोः कः से [३।८।४]
४३३
[ सूत्रार्थ ]
सकार के परे रहते षकार तथा ढकार के स्थान में ककार आदेश होता है ||८२४ |
[दु० वृ०]
षढोः को भवति से परे। पेक्ष्यति, पिपिक्षति । लेक्ष्यति, लिलिक्षिति। से इति किम् ? पिनष्टि, लेढि ॥८२४| [दु० टी०]
षढोः। कषयोरकार उच्चारणार्थः । षकारस्य स्थितिरेव प्राप्ता, ढकारस्य "अघोषेष्वशिटां प्रथम:” (३।८।९) इति वचनम् । पेक्ष्यतीति । 'पिष्ट संचूर्णने ' ( ६।१२) । लेक्ष्यतीति। 'लिह आस्वाद' (२।६३) ||८२४|
[समीक्षा]
'विवक्षति, लेक्ष्यति, पेक्ष्यति' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ षकार - ढकार को ककारादेश का विधान दोनों ही शाब्दिक आचार्यों ने किया है। पाणिनि का सूत्र " षढोः कः सि" (अ० ८।२।४१) । यहाँ उभयत्र समानता ही है।
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[विशेष वचन ]
१. कषयोरकार उच्चारणार्थ : (दु० टी० ) । [रूपसिद्धि]
१. पेक्ष्यति। पिष् + स्यति। 'पिष्ट संचूर्णने ' ( ६ । १२) धातु से भविष्यन्तीविभक्तिसंज्ञक प्र० पु० - ए० व० 'स्यति' प्रत्यय, "नामिनश्चोपधाया लघोः " ( ३।५।२) से उपधासंज्ञक इकार को गुण - एकार, प्रकृत सूत्र से षकार को ककार, "निमित्तात् प्रत्ययविकारागमस्थः सः षत्वम्” (३।८।२६ ) से सकार को षकार तथा 'क् ष्' संयोग से क्षकार की निष्पत्ति ।
२. पिपिक्षति । पिष् + सन् + अन् + ति। 'पिष्ट संचूर्णने' (६।१२) धातु से ‘पेष्टुमिच्छति' अर्थ में “धातोर्वा तुमन्तादिच्छतिनैककर्तृकात्' ( ३।२।४) से 'सन्' प्रत्यय, नकार अनुबन्ध का प्रयोगाभाव “ चण्परोक्षाचेक्रीयितसनन्तेषु' (३।३।७ ) से 'पिष्' धातु को द्विर्वचन, “पूर्वोऽभ्यासः' ( ३।३।४ ) से पूर्ववर्ती 'पिष्' की अभ्याससंज्ञा, “अभ्यासस्यादिर्व्यञ्जनमवशेष्यम्" ( ३।३।९) से षकार का लोप, प्रकृत सूत्र षकार को
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ककार, सकार को षकार, 'क् ष्' संयोग से क्ष्, "ते धातवः " ( ३।२।१६ ) से 'पिपिक्ष' की धातुसंज्ञा, वर्तमानासंज्ञक प्र० पु० ए० व० 'ति' प्रत्यय, "अन् विकरण: कर्तरि " (३।२।३२) से अन् विकरण तथा "अकारे लोपम्" (२।१।१७) से पूर्ववर्ती अकार का लोप
३. लेक्ष्यति । लिह् + स्यति। 'लिह आस्वादने' (२/६३ ) से भविष्यन्तीसंज्ञक 'स्यति' प्रत्यय तथा शेष प्रक्रिया पूर्ववत् ।
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४. लिलिक्षति । लिह् + सन् अन् ति। 'लिह आस्वादने' (२।६३) धातु से सन् प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत् ॥ ८२४।
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