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कातन्त्रव्याकरणम्
४. गन्ता। गम् + ता। 'गम्ल गतौ' (१।२७९) धातु से श्वस्तनीसंज्ञक 'ता' प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत् ।।८०८। ८०९. रिशिरुशिक्रुशिलिशिविशिदिशिदृशिस्पृशिमृशिदन्शेः
शात् [३।७।२७] [सूत्रार्थ
असार्वधातुकसंज्ञक प्रत्यय के परे रहते "रिश्, रुश्, क्रुश्, लिश, विश्, दिश्, दृश्, स्पृश्, मृश्, दन्श्' इन दश शकारान्त धातुओं से उत्तर में इडागम नहीं होता है ।।८०९।
[दु० वृ०]
एभ्यो दशभ्योऽनिड् भवति। रिश रुश हिंसायाम् - रेष्टा, रोष्टा । क्रुश् - क्रोष्टा। लिश् - लेष्टा। विश् - वेष्टा। दिश् - देष्टा। दृश् - द्रष्टा। स्पृश् - स्प्रष्टा। मृश् - म्रष्टा । दश- दंष्टा।।८०९।
[वि० प०]
रिशि०। द्रष्टेति। अकारागमः सृजेरिव । तथा स्पृशिमृशोः ‘स्पृशादीनां वा' इति वचनात् ।।८०९।
[समीक्षा द्रष्टव्य समीक्षा-सूत्र सं० ७९५। [रूपसिद्धि
१. रेष्टा। रिश् + ता। 'रुश् रिश् हिंसायाम्' (५।५५) धातु से श्वस्तनीविभक्तिसंज्ञक 'ता' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से अनिट्, “नामिनश्चोपधाया लघो:' (३।५।२) से धातु की उपधा इकार को गुण, "छशोश्च'' (३।६।६०) से शकार को षकार तथा “तवर्गस्य षटवर्गाट्टवर्ग:' (३।८।५) से तकार को टकारादेश।
२-१०. रोष्टा। रुश् + ता। क्रोष्टा। क्रुश् + ता। लेष्टा। लिश् + ता। वेष्टा। विश् + ता। देष्टा। दिश् + ता। द्रष्टा। दृश् + ता । “सृजिदृशोरागमोऽकार:” (३।४।२५) से ऋकारोत्तर में अकारागम तथा "रम् ऋवर्णः” (१।२।१०) से ऋकार को रकारादेश। स्पष्टा। स्पृश् + ता। ऋकार को रकार। भ्रष्टा। मृश् + ता। दंष्टा । दन्श् + ता ।।८०९। ८१०. द्विषिपुष्यतिकृषिश्लिष्यतित्विषिपिषिविषिशिषि
शुषितुषिदुषेः षात् [३।७।२८] [सूत्रार्थ
असार्वधातुकसंज्ञक प्रत्यय के परे रहते 'द्विष्, पुष्, कृष्, श्लिष्, त्विष्, पिष्, विष्, शिष्, शुष्, तुष, दुष्' इन ११ धातुओं से उत्तर में इडागम नहीं होता है।।८१०।