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तृतीये आख्याताध्याये षष्ठोऽनुषङ्गलोपादिपादः [दु० टी०]
शमा० । दी? हि सजातीयं स्वरमपेक्षते। ह्रस्वप्रतियोगी च दीर्घ इत्याह- ह्रस्व इत्यादि। आदिशब्दस्य व्यवस्थावाचित्वादित्याह मदीपर्यन्त इत्यादि। ‘शमु-दमु-तमुश्रमु-भ्रमु–क्षमु–क्लमु-मदी' एते अष्टौ भवन्ति। ननु शमादीनष्टावधिकृत्य वृद्ग्रहणं किन्न कृतम् अनन्तरस्य विधि: प्रतिषेधो वेति शमादिसमाप्त्यर्थं भविष्यति, न पुषादिसमाप्त्यर्थम्। नैवम्, राश्यपेक्षयोभयमनन्तरं भवतीति व्यवस्थैवाश्रयणीया।। ७४६।
[समीक्षा]
'शाम्यति, ताम्यति, भ्राम्यति' आदि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ उपधासंज्ञक अकार के दीर्घ का विधान दोनों ही व्याकरणों में किया गया है। पाणिनि का सूत्र है"शमामष्टानां दीर्घ: श्यनि' (अ० ७।३। ७४)। यह ज्ञातव्य है कि दिवादिगणपठित धातुओं में पाणिनि के अनुसार “श्यन्' विकरण तथा शर्ववर्मा के अनुसार ‘यन्' विकरण होता है, अत: सूत्रों में उनका भिन्न रूप में उल्लेख द्रष्टव्य है। कातन्त्रकार ने 'शमादि' को एक धातुगण माना है, जबकि पाणिनि ने सूत्र में परिगणन किए विना ही उनकी ८ संख्या का उल्लेख किया है। ऐसी स्थिति में कातन्त्रकार का ही निर्देश अधिक सङ्गत है।
[विशेष वचन] १. आदिशब्दस्य व्यवस्थावाचित्वात् (दु० टी०)। २. राश्यपेक्षया उभयमनन्तरं भवतीति व्यवस्थैवाश्रयणीया (दु० टी०)। [रूपसिद्धि]
१. शाम्यति। शम् + यन् + ति। 'शमु उपशमे' (३। ४२) धातु से वर्तमानाविभक्तिसंज्ञक परस्मैपद-प्र०पु० – ए० व० 'ति' प्रत्यय, दिवादेर्यन्” (३। २। ३३) से ‘यन्' विकरण, “न्' अनुबन्ध का प्रयोगाभाव तथा प्रकृत सूत्र से धातु की उपधा अकार को दीर्घ आदेश।
२. दाम्यति। दम् + यन् + ति। 'दमु उपशमे' (३। ४२) धातु से 'ति' प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत् ।। ७४६ ।
७४७. ष्ठिवुक्लम्वाचमामनि [३।६।६७] [सूत्रार्थ]
'ष्ठिवु-क्लमु' तथा 'आङ्' उपसर्गपूर्वक 'चमु' धातु को दीर्घ होता है, 'अन्' विकरण के परे रहते।। ७४७ ।
[दु० वृ०]
एषामनि विकरणे परे दी| भवति। ष्ठीवति, क्लामति, आचामति। आङिति किम् ? विचमति, चमति।। ७४७।