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कातन्त्रव्याकरणम् स्यादेशः' (का० परि० ७) इति न सेट: प्राप्तिः। “हस्वाच्चानिट:' (३। ६। ५२) इत्यनिग्रहणं स्वरूपविशेषणं मन्दमतिबोधनार्थमिति वक्ष्यति। नेट: परस्य वेति सुखार्थम्, वाशब्द इह पक्षद्वयान्वयार्थः।। ७३१ ।
[समीक्षा]
'अभित्त, अभित्था:, अवात्ताम्, अच्छित्त' इत्यादि शब्दरूपों के साधनार्थ सिच् प्रत्यय का लोप दोनों व्याकरणों में किया गया है। पाणिनि का सूत्र है – “झलो झलि' (अ० ८।२।२६)। ज्ञातव्य है कि पाणिनीय झल् प्रत्याहार में वर्गीय प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ वर्णों का तथा ऊष्मसंज्ञक 'श् ष् स् ह' कुल = २४ वर्णों का समावेश किया गया है। कातन्त्रकार ने इन्हीं वर्णों की धुड् व्यञ्जनमनन्त:स्थानुनासिकम्' (२। १ । १३) सूत्र द्वारा 'धुट' संज्ञा की है। तदनुसार ही यहाँ सूत्रों में उन शब्दों का प्रयोग किया गया है।
[विशेष वचन] १. ह्रस्वाच्चानिट इत्यनिग्रहणं स्वरूपविशेषणं मन्दमतिबोधनार्थम् (दु० टी०)। २. नेट: परस्य वेति सुखार्थम् (दु० टी०)। ३. वाशब्द इह पक्षद्वयान्वयार्थ: (दु० टी०)। [रूपसिद्धि]
१. अभित्त। अट् + भिद् + सिच् + त। 'भिदिर् विदारणे' (६।२) धातु से अद्यतनीविभक्ति- संज्ञक आत्मनेपद - प्र० पु० - ए० व० 'त' प्रत्यय, अडागम, सिच् प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से सिच् का लोप तथा दकार को तकार।
२. अभित्थाः । अट् + भिद् + सिच् + थास् । भिदिर विदारणे' (६।२) धातु से अद्यतनीसंज्ञक - म० पु० - ए० व० 'थास' प्रत्यय, अडागम, सिच् प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से उसका लोप, द् को त् तथा “रसकारयोर्विसृष्टः' (३। ८। २) से सकार को विसर्गादेश।। ७३१।
७३२. ह्रस्वाच्चानिट: [३।६।५ः] [सूत्रार्थ]
धुट्संज्ञक वर्ण के परे रहते ह्रस्व से परवर्ती अनिट् सिच् का लोप होता है।। ७३२।
[दु० वृ०]
ह्रस्वात् परस्यानिट: सिचो लोपो भवति धुटि परे। अकृत, अकृथाः। समस्थित, आहत। ह्रस्वादिति किम् ? अच्योष्ट। नेट: परस्य वेति सुखार्थम्। तेन अवारिष्टाम्, व्यद्योतिष्ट।। ७३२।