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तृतीये आख्याताध्याये षष्ठोऽनुषङ्गलोपादिपाद: [समीक्षा]
'अलविढ्वम्, अपविढ्वम्, अच्योढ्वम्' आदि शब्दों के साधनार्थ 'सिच्' प्रत्यय के सकार का लोप दोनों ही व्याकरणों में किया गया है। पाणिनि का सूत्र है – “धि च' (अ० ८।२।२५)। यह ज्ञातव्य है कि पाणिनि सकारलोप (रात् सस्य - अ० ८।२।२४) का निर्देश करते हैं, जबकि कातन्त्रकार ने 'सिच्' शब्द का पाठ किया है, जो स्पष्टता का अवबोधक है। पाणिनि का सकारनिर्देश भ्रामक ही कहा जाएगा, क्योंकि यहाँ तात्पर्य सिच्-लोप से ही है।
[विशेष वचन] १. अन्यार्थ क्रियमाणमिहापि लक्षणमस्तीति प्रवर्तते (दु० टी०)। [रूपसिद्धि]
१. अलविढ्वम्। अट् + लू + इट् + ध्वम्। 'लूञ् छेदने' (८.।९) धातु से अद्यतनी संज्ञक मध्यम पुरुष-ब० व० 'ध्वम्' प्रत्यय, अडागम, “सिजद्यतन्याम्' (३।२।२४) से 'सिच्' प्रत्यय, इडागम, प्रकृत सूत्र से सिच् का लोप, धातुघटित उकार को गुण ओकार, अवादेश तथा “नाम्यन्ताद् धातोराशीरद्यतनीपरोक्षासु धो ढः” (३।८।२२) से धकार को ढकार आदेश्।
२. अच्योदवम्। अट् + च्यु + सिच् + ध्वम् । 'च्युङ् गतौ' (१६४५९) धातु से अद्यतनीसंज्ञक आत्मनेपद-म० पु०-ब० व० 'ध्वम्' प्रत्यय, अडागम, सिच्-प्रत्यय, "उतोऽयुरुणुस्नुक्षुक्ष्णुवः' (३। ७।१५) से अनिट, गुण, प्रकृत सूत्र से 'सिच्’ का लोप तथा धकार को ढकार आदेश।। ७३०।
७३१. धुटश्च धुटि [३।६। ५१] [सूत्रार्थ]
धुट्संज्ञक वर्ण से परवर्ती सिच् प्रत्यय का लोप होता है, यदि धुट्संज्ञक वर्ण पर में हो तो।। ७३१ ।
[दु० वृ०]
धुट: परस्य सिचो लोपो भवति धुटि परे। अभित्त, अभित्था:। धुट इति किम् ? अमंस्त। धुटीति किम् ? अभित्साताम्।। ७३१ ।
[दु० टी०]
धुटः। एवम् अभैत्तम्, अभैत्त। प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणमिति "व्यञ्जनान्तानामनिटाम्" (३। ६ । ७) इति नित्या वृद्धिः स्यात्। कथम् ‘अवारिष्टाम्, व्यद्योतिष्ट' इति, सिग्रहणेनेटो ग्रहणाल्लोप: प्रसज्येत ? सत्यम्, इह धुड्मात्रं गृह्यते न धुडन्तो धातुरयम् इकारात् पर: सिज् इति न दुष्यति। यदीह सिज्लोपविधौ तदन्तविधिना धातुरुच्यते, तदा "ह्रस्वाच्चानिट:" (३।६।५२) इत्यनिग्रहणमनर्थकं स्यात्। अन्य आह- "निर्दिश्यमान