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कातन्त्रव्याकरणम्
अत्रालंकारसौन्दर्यादपप्रयोगोऽपि प्रसिद्धिमुपगतो न पुनरेवमागमः इति।। ७२७। [समीक्षा]
'अधोक्, अलेट्' आदि शब्दों के सिद्ध्यर्थ 'दि - सि' प्रत्ययों के लोप की व्यवस्था दोनों ही व्याकरणों में की गई है। पाणिनि का सूत्र है “हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्” (अ० ६ । १ । ६८) । यह ज्ञातव्य है कि ह्यस्तनी - अद्यतनी - प्र० पु० - ए० व० में कातन्त्रकार ने 'दि' प्रत्यय किया है, परन्तु पाणिनि तदर्थ 'तिप्' प्रत्यय करते हैं। तदनुसार ही सूत्रों में उनका उल्लेख हुआ है। पाणिनि ने 'ह्यस्तनी अद्यतनी' के लिए ‘लङ् - लुङ् लकारों का प्रयोग किया है।
[विशेष वचन ]
१. कथं हंसि ? साहचर्यात् (दु० वृ० ) ।
२. दिसहचरितः सिः सानुबन्धो गृह्यते इत्यर्थ: (दु० टी० ) । ३. साहचर्यादिति सानुबन्धेन दिना सहचरितः सिरपि सानुबन्धो गृह्यते न निरनुबन्धो वर्तमानाया इत्यर्थः (वि० प० ) ।
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[रूपसिद्धि]
१. अधोक्। अट् + दुह् + दि, सि । 'दुह प्रपूरणे' (२।६१) धातु से ह्यस्तनी - विभक्तिसंज्ञक परस्मैपद प्र० पु० म० पु० ए० व० 'दि - सि' प्रत्यय, “अड् धात्वादिर्ह्यस्तन्यद्यतनीक्रियातिपत्तिषु” (३ । ८ । १६ ) से धातुपूर्व अडागम, ‘अन्’ विकरण का लुक्, “दादेर्घः” (३ । ६ । ५७) से धातुघटित हकार को घकार, "नामिनश्चोपधाया लघोः” (३। ५।२) से उपधा - नामि उकार को गुण, प्रकृत सूत्र से दि - सिलोप, "लोपे च दिस्यो:” (३। ६। १०९) से दकार को धकार, तथा पदान्ते धुटां प्रथम:” (३।८।१) से घकार को ककारादेश ।
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२. अलेट् । अट् + लिह् + ह्यस्तनी - दि, सि । 'लिह आस्वादने' (२ । ६३) से ह्यस्तनीसंज्ञक परस्मैपद प्र० पु० म० पु० ए० व० 'दि - सि' प्रत्यय, अडागम, अन्लुक्, उपधागुण, "हो ढः " (३ । ६ । ५६ ) से हकार को ढकार, प्रकृत सूत्र से 'दि-सि' प्रत्ययों का लोप तथा “पदान्ते धुटां प्रथम:" (३ । ८ । १) से ढकार को टकार आदेश ।। ७२७।
७२८. यस्याननि [ ३ । ६ । ४८ ]
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[सूत्रार्थ]
अन्भिन्न प्रत्यय के परे रहते व्यञ्जनवर्ण से परवर्ती धात्ववयव यकार का लोप होता है ।। ७२८ ।
[दु० वृ०]
यस्येत्यकार उच्चारणार्थः । व्यञ्जनात् परस्य धातोर्यस्याननि प्रत्यये परे लोपो