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कातन्त्रव्याकरणम्
५. अनायि। अट् + नी + इच् –त। ‘णीञ् प्रापण' (१६००) धातु से अातनी आत्मनेपद-प्रथमपुरुष–एकवचन 'त' प्रत्यय, अडागम, इच्, प्रकृत सूत्र से ईकार को वृद्धि 'ऐ' तथा आय आदेश।
६. निनाय। नी + अट। ‘णी प्रापणे' (१६००) धातु से परोक्षासंज्ञक परस्मैपद-प्रथमपुरुष–एकवचन ‘अट्' प्रत्यय, द्विर्वचनादि, प्रकृत सूत्र से ईकार को वृद्धि-एकार तथा एकार का आय् आदश।
७. लावयति। लू + इन् + अन् + ति। 'लू छेदने' (८।९) धातु से इन्, प्रकृत सूत्र से ऊकार को वृद्धि–औकार, आव् आदेश, धातुसंज्ञा, 'ति' प्रत्यय, 'अन्' विकरण, इकार को गण-एकार तथा उसको अयादेश।
८. अलावि। अट् + लू + इच्-त्। 'लूब् छेदने' (८।९) धातु से अद्यतनीसंज्ञक 'त' प्रत्यय, अडागम, इच्, प्रकृत सूत्र से वृद्धि तथा ओकार को 'आव्' आदेश।
९. लुलाव। लू + परोक्षा-अट्। 'लूञ् छेदने' (८।९) धातु से परोक्षासंज्ञक 'अट्' प्रत्यय, द्विवचनादि, प्रकृत सूत्र से ऊकार को वृद्धि-ओकार तथा उसको 'आव्' आदेश।
१०. कारयति। कृ + इन् + अन् + ति। 'डु कृञ् करणे' (७७) धातु से इन् प्रत्यय, प्रकन सूत्र से ऋकार को वृद्धि-आर्, 'कार' की धातुसंज्ञा, 'ति' प्रत्यय, अन् विकरण, इकार को गुण-एकार तथा उसको अयादेश।
११. अकारि। अट् + क + इच्–त। 'डु कृञ् करणे' (७७) धातु से अद्यतनीसंज्ञक 'त' प्रत्यय, अडागम, इच् प्रत्यय तथा वृद्धि-आर्।
१२. चकार। कृ + परोक्षा-अट्। 'डु कृञ् करणे' (७७) धातु से परोक्षासंज्ञक परस्मैपद-प्रथमपुरुष-एकवचन ‘अट्' प्रत्यय, द्विर्वचनादि तथा प्रकृत सूत्र से 'ऋ' को वृद्धि-आर् ।। ६८५ |
६८६. सिचि परस्मै स्वरान्तानाम् [३।६।६] [सूत्रार्थ]
परस्मैपदनिमित्तक 'सिच्' प्रत्यय के परे रहते स्वरान्त धातु के अन्तिम नामिसंज्ञक स्वर को वृद्धि-आदेश होता हे।। ६८६ ।
[दु० वृ०]
परस्मैपदे सिचि परत: स्वरान्तानां धातूनां वृद्धिर्भवति नामिन एव। अरावीत्, अलावीत्, अचेषीत्, अनेषीत्। अर्थात् स्वरान्तग्रहणमुपदेशार्थम्, तन उदवाढाम्। सिचीति किम् ? नवाव। परस्मा इति किम् ? अन्योष्ट। ऊर्णोतेर्वा वक्तव्यम्-प्रौर्णावीत्, प्रोर्णवीत्।। ६८६ ।
[दु० टी०]
सिचि० । स्वर एवान्तो येषामिति विग्रहः। नामिन एवेत्यादि। “अस्योपधाया दीर्घो वृद्धि मिनाम्" (३। ६ । ५) इति सत्यपि द्वयमनन्तरं तथापि नामिन एवानुवृत्तिः।