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तृतीये आख्याताध्याये पञ्चमो गुणपादः
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[दु० टी० ]
नेटि०। कथं रेधिवान् इति। कृतयोरेत्वाभ्यासलोपयोर्वन्सावेकस्वरादिटि कृतेऽनि— दनुबन्धानामगुणेऽनुषङ्गलोपः । ननु नियम एवास्तां किं प्रतिषेधेन परोक्षायामेवेटि नान्यस्मिन्निडादावित्यर्थः ? सत्यम्, विपरीतनियमोऽपि सम्भाव्येत – परोक्षायामिट्येवेति । ततश्च 'ररन्ध' इत्यत्र न स्यात्, रधितेत्यादौ स्यादेव । रधादिपाठात् पक्षे इट् ।। ६६५ ।
[वि० प ]
नेटि० । रधितेत्यादि । "रधादिभ्यश्च" ( ४ । ६ । ८२) इति पक्षे इट् । ररन्धिवेति । स्रादिनियमान्नित्यमिट् ।। ६६५ ।
[समीक्षा]
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'रधिता, रधिष्यति' इत्यादि प्रयोगों के सिद्ध्यर्थ उभयत्र नकारागम का निषेध किया गया है। पाणिनि ने जिन परोक्षकालिक प्रत्ययों के अवबोधार्थ साङ्केतिक 'लिट्' लकार का प्रयोग किया है, तदर्थ कातन्त्रकार ने लोकप्रसिद्ध परोक्षा' संज्ञा की है । अतः तदनुसार शब्दों का प्रयोग सूत्रों में हुआ है। पाणिनि का सूत्र है- "नेट्यलिटि रधेः” (अ० ७। १ । ६२ ) । टीकाकार ने कहा है कि यहाँ यदि यह नियम ही मान लिया जाए कि परोक्षाविषयक इडागम में ही नकारागम प्रवृत्त होगा, अन्यविषयक इडागम में नहीं, तो इस प्रकार प्रतिषेध की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है। लेकिन विपरीत नियम की भी सम्भावना हो सकती है- परोक्षाविभक्ति में इडागम होने पर ही नकारागम हो, इडागम के अभाव में नकारागम न हो। इस प्रकार 'ररन्ध' में तो नकारागम नहीं होना चाहिए और 'रधिता' में हो जाना चाहिए - इस अनिष्ट की आशङ्का से नियम न बनाकर प्रतिषेध किया गया है।
[विशेष वचन ]
१. विपरीतनियमांऽपि सम्भाव्यते, परोक्षायामिट्येवेति (दु० टी० ) । [रूपसिद्धि]
१. रधिता । रध् + इट् + ता 'रध हिंसायां च' (३ । ३७) धातु से श्वस्तनीसंज्ञक 'ता' प्रत्यय, 'इडागमोऽसार्वधातुकस्यादिर्व्यञ्जनादेरयकारादेः " ( ३ । ७।१) से इडागम तथा प्रकृत सूत्र से नकारागम का निषेध |
२. रधिष्यति । रध् + इट् + स्यति । 'रध्' धातु से भविष्यन्तीसंज्ञक परस्मैपदप्रथमपुरुष एकवचन 'स्यति' प्रत्यय, इडागम, मूर्धन्य आदेश तथा प्रकृत सूत्र से नकारागम का निषेध ।
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३. रधितव्यम्। रध् + इट् + तत्र्य सि । 'रध्' धातु से "तव्यानीयौ ” ( ३ । २। ९) सूत्र द्वारा 'तव्य' प्रत्यय, इडागम, नकारागम का निषेध, 'रधितव्य' की लिङ्गसंज्ञा, 'सि' प्रत्यय, "अकारादमम्बुद्धौ मुश्च (२ । २ । ७) से 'मु' का आगम तथा 'सि' प्रत्यय का लोप ।। ६६५ ।