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तृतीये आख्याताध्याये पञ्चमो गुणपाद:
१९७ से अद्यतनीसंज्ञक 'त' प्रत्यय, अडागम, सिच् प्रत्यय, इकारादेश तथा सिच् प्रत्यय का लोप।
६. अधिषाताम्। अट् + धा + सिच् + आताम्। 'धा' धातु से अद्यतनीसंज्ञक 'आताम्' प्रत्यय, अडागम, सिच् प्रत्यय तथा इकारादेश।। ६६१ ;
६६२. मुचादेरागमो नकारः स्वरादनि विकरणे [३। ५। ३०] [सूत्रार्थ]
'अन्' विकरण के परे रहते मुचादिगणस्थ धातुओं पर से परवर्ती नकारागम होता है।। ६६२।
[दु० वृ०]
मुचादेर्गणस्य स्वरात् परो नकारागमो भवति अनि विकरणे परे। मुञ्चति, लुम्पति। विकरण इति किम् ? अमुचन् ।। ६६२।
[दु० टी०]
मुच० । मुचादयस्तुदादौ पठ्यन्ते, ते च वृत्करणादष्टौ भवन्ति, ननु स्वरादेरिति वचनादागमोऽनुमीयते, आदेशे हि तदन्तविधिनैव सिद्धत्वात् । न च प्रकृत्यन्त:पातिनः प्रत्ययत्वं युक्तम्, प्रत्ययाधिकाराभावाद् उत्तरत्र च 'नष्टः, नष्टवान्' इत्यनुषङ्गलोपो न दुष्यति ? सत्यम्। आगमग्रहणं सुखार्थम्। स्वरादित्यन्तावयवत्वनिरासार्थ परयोगलक्षणैषा पञ्चमी, सप्तम्यन्तत्वादन: सन्निहितदेशं त्यक्त्वा स्वरात् परस्यादेशस्य ग्रहणे कारणाभावात्। विकरण इत्यादि। ननु परनिमित्तादेशोऽपि पूर्वस्मिन् स एवावसीयते "अस्य तौ तल्लोपश्च" इति वचनात् ? सत्यम्। अन्मात्रमत्र प्रतिपद्येत।। ६६२॥
[वि० प०]
मुचादेः। अमुचन्निति। 'मुच्छ मोक्षणे' (५। ७), लदनुबन्धत्वाद् अन्, असन्ध्यक्षरविधिः।। ६६२।
[समीक्षा]
'मुञ्चति, लुम्पति' आदि प्रयोगों सिद्धयर्थ मुचादि धातुओं में नकारागम दोनों व्याकरणों में किया गया है। पाणिनि एतदर्थ 'नुम्' आगम कहा है। उन्होंने मित् आगम के लिए नियम बनाया है कि वे अन्तिम अच् के बाद में होंगे – “मिदचोऽन्त्यात् परः'' (अ० १।१। ४७)। नुमागमविधायक सूत्र है – “शे मचादीनाम्' (अ० ७।१। ५९)। कातन्त्रकार ने प्रकृत सूत्र में 'न्' आगम को मुचादिधातुगत अन्तिम स्वर के बाद प्रवृत्त होने का निर्देश किया है। पाणिनि के शप्' विकरण के लिए कातन्त्र में 'अन्' विकरण की व्यवस्था की गई है। दोनों ही व्याकरणों में मुचादिगणपठित धातुओं की संख्या आठ बताई गई है।