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तृतीये आख्यातायाये तृतीयो दिर्वचनपादः ३५३ [वि० प०] हो जः । जघान इति "अभ्यासाच्च" (३।६।३०) इति घत्वम् ।। ५०९/ [समीक्षा]
'जघान,जुहोति' आदि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ अभ्यासवर्ती हकार को जकारादेश की आवश्यकता होती है, इसी अपेक्षा की पूर्ति कातन्त्रकार ने प्रकृत सूत्र द्वारा की है | पाणिनि के अनुसार पहले अन्तरतम होने के कारण ह् को झ् तदनन्तर "अभ्यासे चर्च" (अ०८।४।५४) से जश्त्व करने पर झ् को ज् होता है । पाणिनि का सूत्र है-- "कुहोश्चुः" (अ० ७।४।६२)। इस प्रकार पाणिनीय प्रक्रिया को गौरवाधायिनी कहा जा सकता है । टीकाकार दुर्गसिंह ने भी पाणिनीय प्रक्रिया को पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थापित करके तदर्थ शिक्षावचन का स्मरण करने से जो प्रतिपत्तिगौरव होता है, इस कारण उसे उपेक्षणीय माना है - "हकवर्गयोश्चवर्मः इत्युक्ते ‘हकारेण चतुर्थाः सवर्णाः' इति हकारस्य महाप्राणस्य घोषवतो नादवतश्च तादृशझकारोऽन्तरतमो भवत्येव, किन्तु शिक्षाश्रयणे प्रतिपत्तिगौरवं स्यात्' (दु० टी०)।
[रूपसिद्धि]
१. जघान। हन् + परोक्षा - अट् । 'हन हिंसागत्योः ' (२।४) धातु से परोक्षासंज्ञक परस्मैपद-प्रथमपुरुष - एकवचन अट्-प्रत्यय, द्विर्वचनादि, प्रकृत सूत्र से हकार को जकार, “अस्योपधाया दीर्घो वृद्धि मिनामिनिचट्सु" (३।६।५) से उपधासंज्ञक अकार को दीर्घ तथा “अभ्यासाच्च" (३।६।३०) से हकार को घकारादेश।
२. जुहोति । हु+ अन्-लुक् + ति । 'हु दाने' (२।६७) धातु से वर्तमानासंज्ञक ति-प्रत्यय, "अन् विकरणः कर्तरि" (३।२।३२) से अन्विकरण, “अदादेखेंग् विकरणस्य" (३।४।९२) से उसका लुक्, “जुहोत्यादीनां सार्वधातुके" (३।३।८) से द्विर्वचन, अभ्याससंज्ञा, प्रकृत सूत्र से हकार को जकार तथा "नाम्यन्तयोर्धातुविकरणयोर्गुणः" (३।५।१) से धातुगत उकार को गुणादेश ।। ५०९।
५१०. कवर्गस्य चवर्गः [३।३।१३] [सूत्रार्य]
अभ्याससंज्ञक कवर्गीय वर्णों 'क् -ख - ग्- घ - ङ्' के स्थान में क्रमशः चवर्गीय वर्ण = 'च-छ -ज् - झ्-ञ्' आदेश के रूप में उपपन्न होते हैं ।।५१०।