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विषयानुक्रमणी [आख्यातप्रकरणम् ]
प्रथमः परस्मैपादः
१. 'परस्मैपद - आत्मनेपद' संज्ञाएँ
पृ० १-११६ १-१३
[‘ति’ से ‘स्यामहि’ तक १८० प्रत्ययों के अन्तर्गत पूर्ववर्ती ९-९ प्रत्ययों की परस्मैपद तथा परवर्ती ९-९ की आत्मनेपद संज्ञा, एतदर्थ पूर्वाचार्यों द्वारा इनके अतिरिक्त ‘परस्मैभाष - आत्मनेभाष' संज्ञाशब्दों का भी प्रयोग, शर्ववर्मा द्वारा सुखपूर्वक व्याकरणशास्त्रीय ज्ञान कराने की प्रतिज्ञा, लोकव्यवहार का शास्त्र में समादर, 'विभक्ति' संज्ञा की अन्वर्थता, 'अथ' शब्द के मङ्गल आदि विविध अर्थ, 'हेमकर- कुलचन्द्रपाणिनि' आदि आचार्यों के विविध मत, काशकृत्स्न व्याकरण आदि में इन संज्ञाओं का प्रयोग, परस्मैपद-आत्मनेपदविषकक प्रयोग के सम्बन्ध में शर्ववर्मा की सामान्य तथा पाणिनि की विशेष मान्यता, जैनेन्द्र- हैमशब्दानुशासन आदि में उक्त संज्ञाओं का प्रयोग, पाणिनीय व्याकरण में परस्मैपद- आत्मनेपदसंज्ञक १८ प्रत्ययों का 'तिङ्' प्रत्याहार द्वारा एवं आत्मनेपदसंज्ञक ९ प्रत्ययों का 'तङ्' प्रत्याहार द्वारा प्रयोग, व्याकरणग्रन्थों के अतिरिक्त अग्निपुराण-नारदपुराण में भी दोनों संज्ञाओं का व्यवहार] प्रथम- मध्यम-उत्तमपुरुष संज्ञाएँ
२.
१४-३३
[ परस्मैपद-आत्मनेपदसंज्ञक ९-९ प्रत्ययों में से ३-३ प्रत्ययों की क्रमशः उक्त संज्ञाएँ, 'त्रीणि त्रीणि' इस वीप्सानिर्देश पर आचार्यों के विचार, लोकप्रसिद्धि के आधार पर शास्त्र में इन संज्ञाओं का प्रयोग, 'निरुक्त- जैनेन्द्रव्याकरण-अग्निपुराण' आदि में इन संज्ञाओं का व्यवहार, अनेक पुरुषों की उपस्थिति में परवर्ती पुरुष के अनुसार प्रयोग, जाति-व्यक्तिरूप पदार्थद्वय का विचार, प्रत्यय - उपपद के रूप में नियम के दो भेद, 'प्रथममध्यम-उत्तम' पुरुषों के प्रयोग का निर्धारण, कुलचन्द्र आदि अनेक आचार्यों द्वारा प्रासङ्गिक विषयों पर विचार ]
३. 'दा धातु' संज्ञाएँ
३३-५१
['डुदाञ् दाने' आदि छह धातुओं की 'दा' संज्ञा, कुलचन्द्र आदि आचार्यों के प्रासङ्गिक विचार, पाणिनीय 'घु' संज्ञा की तुलना में कातन्त्रीय 'दा' संज्ञा की अन्वर्थता, चान्द्र आदि व्याकरणों में 'दा' संज्ञा का व्यवहार, नैषधकार श्रीहर्ष द्वारा कपोत की 'घु' ध्वनि से उसके पूर्वजन्म में पाणिनीय व्याकरण के अध्येता होने की