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तृतीये आख्याताध्याये द्वितीयः प्रत्ययपादः [समीक्षा]
अद्यतन भूत अर्थ में पाणिनि ने लुङ् लकार का तथा कातन्त्रकार ने अद्यतनी विभक्ति का प्रयोग किया है । इसके शब्दरूप हैं- 'अकार्षीत्, अनैषीत्, अपाक्षीत्' इत्यादि । इनके सिद्ध्यर्थ 'सिच्' प्रत्यय का विधान दोनों ही आचार्यों ने किया है | पाणिनि का सूत्र है- “च्लेः सिच्" (अ० ३।१।४४) । पाणिनि द्वारा प्रयुक्त लुङ् का प्रयोग विशुद्ध कृत्रिम = साङ्केतिक है, जबकि शर्ववर्मा ने ‘अद्यतनी' इस अन्वर्थक संज्ञा का प्रयोग किया है।
[विशेष वचन]
१. सिच इकार उच्चारणार्थः, चकारः सिचि परस्मै स्वरान्तानाम् इति विशेषणार्थ: (दु० टी०)।
२. दृगादीनां क्विबन्तेन साहचर्याच्चवर्गस्यापि क्विबन्तस्यैव ग्रहणमिति श्रीपतिः (क० च०)।
[रूपसिद्धि]
१. अनैषीत् । अट् + नी + सिच् + दि | ‘णीञ् प्रापणे' (१।६००) धातु से अद्यतनी-विभक्तिसंज्ञक प्रथमपुरुष -एकवचन दि-प्रत्यय, “णो नः" (३।८।२५) से णकार को नकार, “अड् धात्वादिस्तिन्यद्यतनीक्रियातिपत्तिषु" (३।८।१६) से अडागम, प्रकृत सूत्र द्वारा सिच् प्रत्यय, इकार - चकार अनुबन्धों का प्रयोगाभाव. "इडागमोऽसार्वधातुके" (३।७।१) से इडागम प्राप्त, “इवर्णादश्विश्रिडीशीङः" (३।७।१४) से उसका निषेध, “सिचि परस्मै स्वरान्तानाम्" (३।६।६) से धातुघटित ईकार को वृद्धि-ऐ, “सिचः' (३।६।९०) से ईट्, “निमित्तात् प्रत्ययविकारागम०" (३।८।२६) से स् को ष् तथा “वा विरामे" (२।३।६२) से द् को त् ।
२. अपाक्षीत् । अट् + पच् + सिच् + ईट् + दि । 'डु पचष् पाके' (१।६०३) धातु से अद्यतनीविभक्तिसंज्ञक दि-प्रत्यय, अडागम, “अस्य च दीर्घः' (३।६।८) से पच् धातुस्थ अकार को दीर्घ, “चवर्गस्य किरसवर्णे" (३।६।५५) से च् को क्, स् को ष्, क् + ष् संयोग में क्ष् वर्ण तथा द् को त् ।
३. अस्पार्षीत्, अस्पृक्षत् । अट् + स्पृश् + सिच् + ईट् + दि । स्पृश धातु से दि प्रत्यय, अडागम, “व्यञ्जनान्तानामनिटाम्" (३।६।७) से ऋ को वृद्धि-आर्, ईडागम, "छशोश्च" (३।६।६०) से श् को ष्, “षढोः कः से" (३।८।४) से ष् को क्,