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कातन्त्रव्याकरणम्
अर्थ में तथा शान् धातु से निशान अर्थ में । पाणिनीय व्याकरण में इसके लिए वार्त्तिक सूत्र उपलब्ध हैं – “मानेर्जिज्ञासायाम्, वधे(रूप्ये, दानेरार्जवे, शानेर्निशाने' (का० वृ० ३।१।६)। कातन्त्र में इन वार्त्तिकों की व्यवस्था नहीं है, अतः व्याख्याकारों ने कहा है कि 'वध' धातु के साहचर्य से मान धातु भी भौवादिक ही ली जाएगी, चौरादिक नहीं । इस प्रकार भ्वादिगण की मान धातु वस्तुत: जिज्ञासार्थक पढ़नी चाहिए, परन्तु उपलब्ध धातुपाठ में इसे भी पूजार्थक ही पढ़ा गया है | व्याख्याकारों के अनुसार पूजार्थ में चौरादिक मान धातु से 'मानयति, मानः' आदि शब्द बनते हैं । फलतः किसी में भी उत्कर्ष या अपकर्ष नहीं कहा जा सकता है।
[विशेष वचन] १. अभ्यासविकारेष्वपवादो नोत्सर्ग बाधते (दु० वृ०)।
२. वधादिसाहचर्याद् भौवादिकस्य मान इह ग्रहणम्, तस्मात् “मान्वध्दान्शान्भ्यो जिज्ञासावैरूप्यार्जवनिशानेषु' इति न वक्तव्यम्, यतोऽभिधानव्यवस्थाप्युक्तैव (दु० टी०)।
३. तथापि भौवादिकैर्वधादिभिः साहचर्याद् भौवादिकस्यैव मानो ग्रहणमिति (वि० प०)।
४. कितिरुभयपदीति हरिस्वामी । तेन चिकित्सते इति च मन्यते इत्युपाध्यायसर्वस्वः । वर्धमानोपाध्यायोऽपि खण्डनप्रकाशे चिकित्सते इति पाठः साधुरित्याचष्टे । मुरारिप्रयोगेऽपि 'न बालतां हन्तुमनाश्चिकित्सते' इति दृश्यते । वस्तुतस्तु अन्तर्भूतेनर्थस्य कितः कर्मकर्तृविवक्षया रुचादिवचनादात्मनेपदमिति (क० च०)।
[रूपसिद्धि]
१. मीमांसते। मान् + सन् + ते । ‘मान पूजायाम्' (१।४६९) धातु से स्वार्थ में प्रकृत सूत्र द्वारा सन् प्रत्यय, द्विर्वचनादि, अभ्यासगत 'मा' का शेष-न् का लोप, "ह्रस्वः'' (३।३।१५) से ह्रस्व, “सन्यवर्णस्य" (३।३।२६) से अकार को इकार , प्रकृत सूत्र द्वारा ह्रस्व इकार को दीर्घ आदेश, “मनोरनुस्वारो धुटि' (२।४।४४) से न् को अनुस्वार , ‘मीमांस' की धातुसंज्ञा, ते प्रत्यय, अन् विकरण, सन्प्रत्ययगत अकार को अकार तथा अकार का लोप ।
२. बीभत्सते । बध् + सन् + ते । 'बध बन्धने' (१।४७०) धातु से स्वार्थ में प्रकृत सूत्र द्वारा सन् प्रत्यय, द्विर्वचनादि, 'ब' का शेष-धू का लोप, इत्त्व, दीर्घ, "तृतीयादेर्घढ०" (३।६।१००) इत्यादि से ब् को भ्, “अघोषेष्वशिटां प्रथमः"