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कातन्त्रव्याकरणम्
[समीक्षा]
ट्यादिभिन्न सर्वनामसंज्ञक शब्दों से तथा संख्यावाची बहुशब्द से होने वाले प्रत्ययों की विभक्तिसंज्ञा दोनों ही व्याकरणों में की गई है । पाणिनि के सूत्र हैं"प्राग्दिशो विभक्तिः, किंसर्वनामबहुभ्योऽद्व्यादिभ्यः" (अ० ५/३/१,२) । पाणिनि ने ११ प्रत्यय पढ़े हैं, जबकि शर्ववर्मा ने १० प्रत्यय । जो इस प्रकार हैंपाणिनीय व्याकरण- १. तसिल, २. त्रल, ३.ह, ४. अत्, ५. दा, ६. हिल, ६.
अधुना, ८. दानीम्, ९. थाल्, १०. थमु, ११. था। कातन्त्रव्याकरण- १.तस्, २. त्र, ३. ह, ४. अत्, ५. दा, ६. हि,७. अधुना, ८. दानीम् .
९. था, १०, थमु। पाणिनीय व्याकरण में थाल् के अतिरिक्त था प्रत्यय का विधान वैदिक शब्दों के लिए किया गया है जो कातन्त्र में नहीं है । यह संज्ञा सर्वनामकार्यों के लिए की गई है । अतः 'तदा, कदा' आदि प्रयोगों में "त्यदादीनाम विभक्तौ" (२/३/२९) से अकारादेश तो होता है, परन्तु “अकारो दीर्घ घोषयति' (२/१/१४) से दीर्घ आदेश नहीं होता | 'स्यादि-त्यादि प्रत्ययों की जो विभक्तिसंज्ञा की जाती है तो वहाँ विभक्ति की अन्वर्थता सिद्ध होती है, क्योंकि वहाँ उससे संख्या-कर्म आदि का विभाग किया जाता है, परन्तु 'तस्-त्र' आदि से संख्याकर्मादि का विभाग नहीं होता, अतः इन प्रत्ययों की पृथक् विभक्ति संज्ञा की गई है । पाणिनीय व्यादिगण में 'किम्' शब्द का पाठ है 'अद्व्यादि' इस निषेध से उससे भी निषेध होगा, अतः 'किम्' शब्द को भी सूत्र में पढ़ा गया है। परन्तु कातन्त्रकार ने द्व्यादि से पूर्व में 'किम्' शब्द का पाठ किया है, फलतः 'किम्' शब्द का पृथक् पाठ किए विना 'सर्वनाम' से ही उसका ग्रहण सिद्ध हो जाने के कारण 'किम्' शब्द को उन्हें सूत्र में नहीं पढ़ना पड़ता है।
१."तस्मात् परा विभक्तयः" (२/१/२) इत्यनेन लिङ्गात् (प्रातिपदिकात्) स्यादिप्रत्ययानां विधानात्
तेषां विभक्तित्वमवशिष्यते । २. "नव पराणि० (३/२/१) इत्युक्तिबाधया पूर्वाणि नवैव वचनानि सर्वासां विभक्तीनाम्" (कात०
वृ० ३/१/१) इति वृत्तिकारवचनेन त्यादिप्रत्ययानां विभक्तित्वं विज्ञायते ।