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विषयानुक्रमणी क्रिया की प्रधानता, क्रियाविशेषण का कर्मत्व – नपुंसकत्व – एकत्व, अमूर्त क्रिया में लिङ्गसंख्या का अयोग, कर्ता के विना क्रिया असंभव, कर्ता-गत क्रिया से व्याप्त होने वाले की कर्मसंज्ञा, क्रियाविशिष्ट साधन की कर्मता, चन्द्रगोमिमत का अनुसरण, नाट्यशास्त्र तथा काशकृत्स्न व्याकरण में कर्मसंज्ञा का उपादान, चान्द्र - जैनेन्द्र - हेमचन्द्र - मुग्धबोधव्याकरण - अग्निपुराण - नारदपुराण तथा शब्दशक्तिप्रकाशिका में कर्मसंज्ञा का प्रयोग, द्विकर्मक धातुएँ, चन्द्रगोमी-कुलचन्द्र-श्रीपतिदत्त- जयादित्य आदि आचार्यों के विविध मत] । ७. कर्ता संज्ञा तथा हेतुसंज्ञा
पृ० सं० १००-११० [पाणिनि तथा शर्ववर्मा द्वारा समान अर्थ में कर्ता संज्ञा, क्रियाश्रयत्वरूप तथा प्राधान्येन धातुवाच्यव्यापारवत्त्वरूप कर्तृत्व, तीन प्रकार का कर्ता, नाट्यशास्त्र तथा काशकृत्स्नधातुव्याख्यान में कर्तृसंज्ञा का उपादान, जैनेन्द्र-हेमचन्द्र-मुग्धबोधअग्निपुराण- नारदपुराण तथा शब्दशक्तिप्रकाशिका में कर्ता का उल्लेख, कृत् की योग्यता में शक्ति, स्वतन्त्र कर्ता को किसी कार्य में नियुक्त या प्रवृत्त करने वाले की हेतुसंज्ञा तथा कर्तृसंज्ञा, तीन प्रकार का हेतु, हेतु की अन्वर्थता, हेतु और करण में भेद, काशकृत्स्नव्याकरण में हेतु संज्ञा का प्रयोजक शब्द से ग्रहण ] | ८. परवर्ती कारक की प्रवृत्ति
पृ० सं० ११०-१४ [भिन्न-भिन्न व्याकरणों में कारकों के दो क्रम - १. अपादान-सम्प्रदान करणअधिकरण-कर्म-कर्ता एवं २. कर्ता-कर्म-अधिकरण-करण-सम्प्रदान-अपादान, एक ही स्थल में प्राप्त दो कारकों में से प्रथम क्रम के अनुसार परवर्ती कारक की प्रवृत्ति एवं द्वितीय क्रम के अनुसार पूर्ववर्ती कारक की प्रवृत्ति, शर्ववर्मा द्वारा अधिकरण- करण का क्रम तथा पाणिनि द्वारा करण-अधिकरण का क्रम अपनाना, अर्थलाघव के अभीष्ट होने से कारक संज्ञा का व्याख्यात न होना, श्रीपतिदत्त आदि आचार्यों द्वारा उसकी मान्यता, विवक्षावशात् कारकों की प्रवृत्ति, लोकव्यवहारानुरोध से सम्प्रदान जादि संज्ञाओं का उपादान, अपाणिनीय होने से श्रीपति के सूत्र की असाधुता, व्यक्ति तथा जातिरूप पदार्थ] ।