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कातन्त्रव्याकरणम्
[रूपसिद्धि]
१. ग्रामाय दत्त्वा तीर्थ गतः। कर्ता-देवदत्तः, कर्म-धनम् = ग्रामाय धनं दत्त्वा तीर्थं गतः । यहाँ 'दा' धातु के योग से संप्रदान तथा गम् धातु के योग से अपादान संज्ञा प्राप्त होती है, परन्तु पर होने के कारण संप्रदान संज्ञा प्रवृत्त हो जाती है । ग्राम + रे । उ को 'य' आदेश तथा मकारोत्तरवर्ती अकार को दीर्घ आदेश ।
२. कांस्यपात्र्यां भुक्ते । कर्ता-देवदत्तः, कर्म-अन्नम्, देवदत्तः कांस्यपात्र्याम् अन्नम् भुङ्क्ते । अन्न के पृथक् होने के कारण 'कांस्यपात्री' की अपादानसंज्ञा तथा अन्नभोजन का आधार होने से अधिकरणसंज्ञा, परन्तु पर होने के कारण अधिकरण संज्ञा प्रवृत्त हो जाती है । कांस्यपात्री + ङि । ङि को आम् तथा ईकार को यकारादेश ।
३. मूदुना धनुषा शरान् क्षिपति । कर्ता-देवदत्तः । शरों का आधार होने के कारण अधिकरण तथा शरक्षेपण में साधकतम होने के कारण 'धनुष्' की करणसंज्ञा प्राप्त होती है । परन्तु पर में होने से करणसंज्ञा ही उपपन्न हो पाती है । धनुष् + टा | 'ट्' अनुबन्ध का लोप ।
४. तरुं त्यजति खगः । यहाँ त्यागरूप क्रिया की अवधि होने के कारण तरु की अपादानसंज्ञा तथा ईप्सिततम होने के कारण कर्म संज्ञा प्राप्त है, परन्तु परवर्तिनी कर्मसंज्ञा ही प्रवृत्त हो पाती है। तरु+अम् । अकारलोप ।
५. गां दोग्धि पयः। यहाँ दुग्ध के पृथक् होने से प्राप्त अपादानसंज्ञा का बाध करके ईप्सिततम होने के कारण 'गो' की कर्मसंज्ञा प्रवृत्त होती है । गो + अम् । ओकार को आकार तथा परवर्ती अकार का लोप ।
६. त्यजति दण्डं दण्डी। यहाँ दण्डत्यागरूप क्रिया की अवधि होने के कारण प्राप्त अपादानसंज्ञा को बाधकर त्यागक्रिया में स्वतन्त्र दण्डी की कर्तृसंज्ञा उपपन्न होती है । दण्डिन् + सि । इकार को दीर्घ-सिलोप तथा नलोप ।।३०१ ।
३०२. प्रथमाविभक्तिर्लिङ्गार्थवचने [२।४।१७] [सूत्रार्थ]
जहाँ लिङ्ग अपने स्वाभाविक अर्थ को कहता है, वहाँ उससे प्रथमा विभक्ति होती है ||३०२।