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________________ कातन्त्रव्याकरणम् इदन्तोदन्तमिति युक्तं चेत् न । न ह्यस्य लिङ्गाधिकारोऽस्ति येन लिङ्गेनात्र तदन्तविधिर्भविष्यतीति युक्तमेवोक्तं वृत्तौ इकार उकारश्चेत् ॥ ८७ ॥ [समीक्षा] लिङ्ग का अधिकार न होने के कारण कातन्त्र में 'इ-उ' वर्णों की अग्नि संज्ञा मानी गई है । पाणिनि ने इसके लिए इवर्णोवर्णान्त की घिसंज्ञा की है - "शेषो घ्यसखि” (पा० अ० १।४।७) । इकार उकार की अग्निसंज्ञा करने के कारण कातन्त्र में ‘अग्नी,पटू' आदि शब्दों में "औकारः पूर्वम् " ( २ |१| ५१ ) सूत्र से औकार को 'इ-उ' आदेश होते हैं, तदन्त अग्नि-पटु' इत्यादि नहीं | संज्ञा - शब्द की दृष्टि से ‘अग्नि' को अन्वर्थ कहा जा सकता है, जबकि पाणिनि की 'घि ' संज्ञा अत्यन्त कृत्रिम होने से यदृच्छाप्रयुक्त है । इन दोनों में यही अन्तर कहा जा सकता है कि कातन्त्रकार की संज्ञा शब्दप्रयोग से अर्थावबोध कराने की तरह सहजगम्य है और पाणिनि की कृत्रिम संज्ञा हस्तचेष्टा से अर्थावबोध कराने की तरह साङ्केतिक । [ रूपसिद्धिः ] ४२ 1 १. अग्निम् | अग्नि + अम् । प्रकृतसूत्र से अग्निशब्दान्तर्गत इकार की अग्निसंज्ञा, “अग्नेरमोऽकारः " ( २।१।५०) से अम्-प्रत्यय के अकार का लोप । २. पटुम् । पटु +अम् | प्रकृत सूत्र से पटु-शब्दान्तर्गत उकार की अग्निसंज्ञा तथा " अग्नेरमोऽकारः " ( २।१।५० ) से अम्-प्रत्यय के अकार का लोप || ८७ | ८८. ईदूत् स्त्र्याख्यौ नदी [ २।१।९ ] [ सूत्रार्थ ] नित्यस्त्रीलिङ्ग वाले शब्दों में दीर्घ ईकार तथा दीर्घ ऊकारी नदीसंज्ञा होती है ।। ८८ । [दु० वृ० ] ईदूदित्येवं स्त्र्याख्यौ नदीसंज्ञौ भवतः । नयै, बध्वै । तपरकरणमसन्देहार्थम् । स्त्र्याख्याविति किम् ? सेनान्यै, यवल्वै । नदीप्रदेशा:- "नया ऐ आसासाम् ” (२।१।४५) इत्येवमादयः ।। ८८ ।
SR No.023087
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1998
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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