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________________ ३०० कातन्त्रव्याकरणम् [दु० वृ०] 'उदन्च्' इत्ययम् उदीचिर्भवति अघुट्स्वरादौ । उदीचः, उदीचा, उदीची, औदीच्यम् ।।२०७। [दु० टी०] उदङ् । यदि तिरेरिरश्, उद ई' इति विदध्यात्, अञ्चतेरलोपः, तिरिशब्दस्येकारस्य अश् भवति, नैवम् । उद एव स्थाने भवतीति प्रतिपद्येत, अतो विस्पष्टार्थं यथान्यासम् इति | इनि तु उदयति ।।२०७। [समीक्षा] - 'उदन्च् + शस्, उदन्च् + टा, उदन्च् + ई + सि, उदन्च् + यण' इस अवस्था में कातन्त्रकार 'उदङ्' को 'उदीचि' आदेश करके 'उदीचः, उदीचा, उदीची, औदीच्यम्' शब्दरूप सिद्ध करते हैं | पाणिनि ने 'उद्' उपसर्ग के बाद आने वाले ‘अन्च्' शब्द के आदि वर्ण अ के स्थान में 'ई' आदेश करके उक्त शब्दरूप सिद्ध किए हैं - "उद ईत्" (अ० ६।४।१३९) । इस प्रकार कार्यसंख्या की दृष्टि से उभयत्र साम्य ही कहा जा सकता है। [रूपसिद्धि] १. उदीचः । उदन्च् + शस् । प्रकृत सूत्र द्वारा 'उदन्च्' को 'उदीचि' आदेश तथा स् को विसर्ग। २. उदीचा | उदन्च् + टा | पूर्ववत् 'उदीचि' आदेश । ३. उदीची । उदन्व् + ई+ सि | स्त्रीलिङ्ग में ई प्रत्यय, 'उदीचि' आदेश तथा विभक्तिकार्य। ४. औदीच्यम् । उदन्च् + यण् । उदीचो भावः । यणप्रत्यय, उदीचि आदेश, आदिवृद्धि तथा विभक्तिकार्य ।। २०७। २०८. पात् पदं समासान्तः [२।२।५२] . [सूत्रार्थ] घुट् - भिन्न स्वरादि प्रत्यय के परे रहते समासान्त-स्थित ‘पात्' शब्द को 'पद्' आदेश होता है ||२०८।
SR No.023087
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1998
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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