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________________ १८२ कातन्वव्याकरणम् (अष्टनः सर्वासु २।३।२०) हो जाने पर उसका नकारान्तत्व समाप्त हो जाता है, किन्तु पूर्व में नकारान्त होने के कारण 'नु' आगम प्रवृत्त होता है। __यहाँ यह ज्ञातव्य है कि पाणिनि ने षान्त-नान्त संख्यावाचक शब्दों की (पञ्चन्, षष्, सप्तन्, अष्टन्, नवन्, दशन्) 'षट्' संज्ञा की है- "ष्णान्ता षट्" (अ० १।१।२४)। तदनुसार 'षट्' - संज्ञक शब्दों से नुडागम किया गया है। कातन्त्रकार ने संख्या तथा षट् संज्ञाओं के लिए सूत्र नहीं बनाए । उन्होंने लोकव्यवहार के अनुसार संख्यार्थक शब्दों को उसी अर्थ में स्वीकार कर उनका अपने व्याकरण में प्रयोग किया है । तदनुसार ही षान्त-नान्त संख्यावाचक शब्दों से 'नु' आगम का निर्देश किया गया है। यह विशेष ज्ञातव्य है कि पाणिनि ने पारिभाषिक संख्यासंज्ञा तो की ही है, उसके अतिरिक्त लोकप्रचलित शब्दों का भी प्रयोग किया है । कातन्त्रकार केवल लोकव्यवहार को प्रधान मानकर संख्यासंज्ञक सूत्र बनाने की आवश्यकता नहीं समझते हैं, जैसा कि प्रकृत सूत्र (२।१।७५) से स्पष्ट है ।। १५४। [रूपसिद्धि] १. षण्णाम् । षष् + आम् । प्रकृत सूत्र से 'नु' आगम, "हशषान्तेजादीनां उः" (२।३।४६) से ष् को ड्, “षडो णो ने" (२।४।४३) से 'इ' को 'ण' तथा "तवर्गश्चटवर्गयोगे चटवर्गों" (२।४।४६) से 'न्' को 'ण' आदेश । २. पञ्चानाम्। पञ्चन् + आम् । प्रकृत सूत्र से 'नु' आगम, "नान्तस्य चोपधायाः" (२।२।१६) से दीर्घ तथा “लिङ्गान्तनकारस्य" (२।३।५६) से नकार का लोप ।। १५४। १५५. कतेश्च जस्शसोलुक् [२।१।७६] [सूत्रार्थ] सङ्ख्यासंज्ञक षकारान्त- नकारान्त शब्द तथा 'कति' शब्द से परवर्ती जस् - शस् प्रत्ययों का लुक् होता है ।। १५५।
SR No.023087
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1998
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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