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________________ ७० कातन्त्रव्याकरणम् [समीक्षा] कातन्त्रकार और पाणिनि दोनों ने ही अकारान्त लिङ्ग=प्रातिपदिक से भिस् को ऐस् आदेश किया है, अतः उभयत्र उत्कर्ष - अपकर्ष नहीं कहा जा सकता है । कातन्त्रकार ने 'वा' शब्द पढ़कर पक्षान्तर भी सूचित किया है, जिससे 'वृक्षेभिः ' आदि भी रूप साधु कहे जा सकते हैं, लेकिन भाषा में ऐसे रूपों का व्यवहार न होने से व्याख्याकार 'एस्' रूप पक्षान्तर की कल्पना करते हैं । पाणिनि तथा तदनुयायी ऐस् आदेश को भाषा में नित्य ही स्वीकार करते हैं- “अतो भिस ऐस्" (अ० ७ । १ । ९ ) । [ रूपसिद्धि ] १. वृक्षैः । वृक्ष + भिस् । प्रकृत सूत्र से भिस् को 'ऐस्' आदेश, "एकारे ऐ ऐकारे च" (१।२।६ ) से अकार को ऐकार, परवर्ती ऐकार का लोप तथा “रेफसोर्विसर्जनीयः” (२। ३ । ६३) से स् को विसर्ग आदेश || ९७ | ९८. धुटि बहुत्वे त्वे [ २।१।१९] [ सूत्रार्थ ] बहुवचन में धुडादि वर्ण वाली विभक्ति के परवर्ती होने पर लिङ्ग (प्रातिपदिक) का अन्तिम अकार एकार हो जाता है || ९८ | [दु० वृ० ] अकारो लिङ्गान्तो बहुत्वे धुटि परे एकारो भवति । एषु, वृक्षेभ्यः । परत्वादेत्वं स्यात् । धुटीति किम् ? वृक्षाणाम् । तुशब्दो विभाषानिवृत्त्यर्थः ॥ ९८ ॥ [दु० टी० ] धुटिo | बहुत्वेऽर्थे वर्तते यः स्यादिस्तस्मिन् धुटीति बहुत्वे वर्तमाने धुडादौ स्यादावित्येके।‘वृक्षेभ्यः’ इत्यादिषु घोषवति दीर्घः प्राप्नोति धुट्येत्वं च । तत्रोभयोरन्यत्र सावकाशत्वात् 'पूर्वपरयोः परविधिर्बलवान्' ( द्र०, कला० व्या०, पृ० २२१, सं० ५०) इत्यर्थः । तुशब्द इत्यादि । यदीह वाग्रहणमनुवर्तते तदा धुट्येत्वमैस् वा भवतीति विप्रतिपद्यते । भोर्बहुत्वे इति कृते न किञ्चिल्लाघवमिति ॥ ९८ ।
SR No.023087
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1998
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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