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प्रास्ताविकम्
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७. शब्दसाधनप्रक्रिया का वैशिष्ट्य
(सवर्णदीर्घविधि)
‘देव+अरिः, भानु+उदयः' आदि स्थलों में कातन्त्र के अनुसार वकारोत्तरवर्ती अकार तथा नकारोत्तरवर्ती उकार को दीर्घ आदेश एवं उत्तरवर्ती वर्णों का लोप होकर 'देवारिः, भानूदयः' प्रयोग सिद्ध होते हैं । पाणिनि यहाँ दो वर्णों के स्थान में दीर्घ आदेश करते हैं । कातन्त्र का सूत्र है- “समानः सवर्णे दीर्घीभवति परश्च लोपम्” (१।२।१) ।
(पूर्वरूप) -
'ते+अत्र, पटो+अत्र' इस अवस्था में पाणिनि दो वर्णों के स्थान में पूर्वरूप एकादेश करते हैं, जबकि कातन्त्रकार पदान्तस्थ एकार- ओकार के अनन्तर विद्यमान अकार का लोप करते हैं - " एदोत्परः पदान्ते लोपमकारः” (१।२।१७) । इस प्रक्रिया से 'तेऽत्र, पटोऽत्र' रूप सरलता से सिद्ध होते हैं ।
(शकारादेश) -
'भवान्+चरति, भवान् + छादयति' इस स्थिति
पाणिनीय प्रक्रिया के अनुसार
‘नू' को 'रु',‘रु' को विसर्ग, सकारादेश, श्चुत्व से शकार, अनुनासिक तथा अनुस्वार होकर 'भवांश्चरति, भवांश्छादयति' रूप सिद्ध होते हैं । कातन्त्रकार ने तो 'नू' के स्थान में अनुस्वारपूर्वक शकारादेश करके उक्त प्रयोग सिद्ध किए हैं - "नोऽन्तश्चछयोः शकारमनुस्वारपूर्वम्" (१|४|८) |
(स्वरादिधातुओं में आदिवृद्धि ) -
'ऐत् - ऐधत्' आदि प्रयोगों में पाणिनि के अनुसार आट् आगम तथा पूर्वपर के स्थान में वृद्धिरूप एकादेश होता है ।
कातन्त्रकार ने ऐसे स्थलों में धात्वादिस्थ स्वर को वृद्धि करने का निर्देश किया है - " स्वरादीनां वृद्धिरादेः " ( ३।८।१७) ।
८. व्यापक प्रचार-प्रसार - गत वैशिष्ट्य
कातन्त्रव्याकरण का प्रचार-प्रसार भारत के सीमावर्ती प्रदेशों में अधिक हुआ । वङ्ग और कश्मीर में कभी यही व्याकरण पठन-पाठन में प्रचलित