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कातन्त्रव्याकरणम्
जिह्वामूलीय-उपध्मानीय-स्' को भी वर्ण माना है । अतः कातन्त्रीय वर्णसमाम्नाय में ५२ वर्ण हैं, जबकि पाणिनि ने केवल ४२ ही वर्ण माने हैं | पाणिनीय वर्णसमाम्नाय में 'ए-ओ-ऐ-औ-य-व्-र-ल्' तथा 'ख्-फ्-छ्' आदि वर्गों का स्वैच्छिक क्रम से तथा हकार का दो बार पाठ किया गया है, इसके विपरीत कातन्त्रकार ने लोकव्यवहार के ही अनुसार सभी वर्गों के पाठ का क्रम अपनाया है | वर्ण-समाम्नाय के लिए सूत्र है- “सिद्धो वर्णसमाम्नायः” (१।१।१)। __२. जिन शब्दों की सिद्धि के लिए सूत्र नहीं बनाए गए हैं, उनके साधुत्व का बोध लोक-व्यवहार से कर लेने का निर्देश है - "लोकोपचाराद् ग्रहणसिद्धिः" (१।१।२३) । पाणिनि ने इसके लिए सूत्र बनाया है - "पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्" (पा० ६।३।१०९)।
३. सूत्र-पठित 'वा-अपि' शब्दों के बल पर तथा कहीं-कहीं अनुवृत्ति से अनेक शब्दों की सिद्धि दिखाई गई है । इस प्रक्रिया से भी जो शब्द सिद्ध नहीं हो पाते, उन्हें शिष्टव्यवहार के अनुसार साधु मान लेने का व्याख्याकारों ने निर्देश किया है
वाशब्देश्यापिशब्दैर्वा शब्दानां (सूत्राणाम्) चालनैस्तथा। एभिर्येऽत्र न सिध्यन्ति ते साध्या लोक सम्मताः॥
(क० च० १।१।२३) ६. लाघवप्रयुक्त वैशिष्ट्य
लाघव दो प्रकार का होता है - शब्दकृत तथा अर्थकृत | शब्दकृत लाघव में अर्थबोध प्रायः विलम्ब से होता है, जबकि अर्थकृत लाघव में शीघ्र हो जाता है । शब्दकृत लाघव में अल्प शब्दों का तथा अर्थकृत लाघव में अर्थबोध की सुगमता को ध्यान में रखकर अपेक्षाकृत अधिक शब्दों का प्रयोग होता है । कातन्त्र- व्याकरण में अर्थलाघव विद्यमान है और पाणिनीय व्याकरण में शब्दकृत लाघव । कातन्त्रव्याकरण में प्रयुक्त स्वर-व्यञ्जन-वर्तमाना-श्वस्तनी-भविष्यन्ती जैसी संज्ञाओं से अर्थलाघव तथा पाणिनीय व्याकरण में अच्-हल्-लट्-लुट्-लृट् जैसे प्रयोगों से शब्दलाघव का अनुमान किया जा सकता है।