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कातन्त्रव्याकरणम्
माहेश्वर व्याकरण की परम्परा में पाणिनीय-चान्द्र-सारस्वत आदि अनेक व्याकरणों की गणना की जा सकती है, जबकि ऐन्द्रपरम्परा का निर्वाह करने वाला केवल कातन्त्रव्याकरण ही माना जाता है । कुछ विद्वान् इसका सम्बन्ध बौद्ध तन्त्रों तथा श्रीविद्या के भी साथ जोड़ने का प्रयत्न करते हैं | पाणिनीय-परवर्ती लगभग ४०४५ व्याकरणों में से कातन्त्रव्याकरण न केवल कालक्रम की ही दृष्टि से प्रथम माना जाता है , किन्तु सरलता-संक्षेप आदि की भी दृष्टि से इसे प्रथम कोटि में रखा जा सकता है । इसकी शब्दसाधन-प्रक्रिया सरल तथा संक्षिप्त है । इसके नामों की तरह रचना-प्रयोजन भी अनेक माने जाते हैं । इसका अध्ययन - अध्यापन अङ्गवङ्ग-कलिङ्ग-कश्मीर-राजस्थान आदि प्रदेशों में तथा तिब्बत-श्रीलङ्का आदि देशों में भी प्रचलित रहा है । सम्प्रति यह आसाम-कलकत्ता-रीवाँ (म० प्र०) में अंशतः पढ़ाया जाता है । जैनसमाज इसे जैनव्याकरण मानता रहा है, जब कि बौद्ध व्याकरण माने जाने के भी पक्ष में कुछ आधार प्राप्त होते हैं । इसके रचनाकार आदि का परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है -
कातन्त्रकार का देश-काल विद्वानों ने कातन्त्ररचनाकार के काल-विषयक विविध मत व्यक्त किए हैं । अतः सर्वसम्मत काल अद्यावधि निश्चित नहीं हो सका है | युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार यदि कातन्त्रकार शर्ववर्मा का काल वि० पू० २००० वर्ष मान लिया जाए और सामान्य धारणा के अनुसार यीशवीय प्रथम शताब्दी, तो यहाँ दो सहस्राब्दियों का अन्तर आता है । यह अन्तर इतना अधिक है कि अनुमान से भी निश्चय के समीप पहुँच पाना अत्यन्त कठिन कार्य है । इस प्रकार काल की निश्चित संख्या देना संभव न होने पर भी कुछ आधार ऐसे अवश्य मिलते हैं, जिनका विवेचन करने पर महाभाष्यकार पतञ्जलि से पूर्ववर्ती कातन्त्रकार को माना जा सकता है । जैसे -
१. कथासरित्सागर (ल०१, त० ६-७) के अनुसार शर्ववर्मा ने राजा सातवाहन को व्याकरण का शीघ्र बोध कराने के लिए कातन्त्रव्याकरण की रचना की थी | सुषेण विद्याभूषण ने कलापचन्द्र नामक व्याख्या में राजा का नाम शालिवाहन तथा
Areader on the sanskrit grammarians (pp.22) में J. F. stall ने समलवाहन लिखा है, जो उचित प्रतीत नहीं होता । सातवाहन को आन्ध्र का राजा माना जाता