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प्रास्ताविकम्
में २५ आगमों, १४३ प्रत्ययों ( ति तस् आदि १८० प्रत्यय इनसे भिन्न हैं), आदेशों तथा सूत्र-धातुपाठ आदि में ११००-१२०० अर्थों का विनियोग किया गया है ।
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श्रीपतिदत्त ने कातन्त्रपरिशिष्ट तथा चन्द्रकान्ततर्कालिंकार ने छन्दःसूत्रों की रचन इसे सर्वाङ्गपूर्ण बनाने के लिए की है । सम्प्रति इसके धातुपाठ में १३४७ धातुसूत्र तथा लगभग १८०० धातुएँ प्राप्त हैं । गणपाठ केवल वृत्ति आदि ग्रन्थों में ही मिलता है । उणादिसूत्रों की रचना दुर्गसिंह ने की है। इसमें ६ पाद तथा ३९९ सूत्र हैं । उणादिसूत्रों का तिब्बती-अनुवाद के साथ एक उत्कृष्ट अध्ययन डॉ० धर्मदत्त चतुर्वेदी तथा आ० लोसङ् नोर्बू शास्त्री ने किया है । यह ग्रन्थ १९९३ में मुद्रित हो चुका है । ८७ कारिकाओं में निबद्ध इसका लिङ्गानुशासन आचार्य दुर्गसिंहरचित प्राप्त होता है । परिभाषापाठ पर दुर्गसिंह तथा भावशर्मा ने वृत्तियाँ लिखी हैं। शिक्षासूत्र तथा उपसर्गसूत्र भी प्राप्त हो जाते हैं ( द्र०, कलापव्याकरणम् - तिब्बतीसंस्थानम्, १९८८)।
इस व्याकरण के आधार पर बालशिक्षाव्याकरण तथा गान्धर्वकलापव्याकरण की रचना की गई है । इसका वाङ्मय अत्यन्त समृद्ध है, परन्तु अधिकांश अद्यावधि मुद्रित नहीं हुआ है । मुद्रित ग्रन्थ बँगला तथा देवनागरी लिपियों में प्राप्त होते हैं। अमुद्रित अंश बँगला - शारदा - उत्कल - देवनागरी-मैथिली तथा नेवारी लिपियों वाले हस्तलेखों में सुरक्षित है | भोटलिपि में इसके अनेक ग्रन्थों का अनुवाद किया गया है तथा भोटभाषा में २३ से भी अधिक टीकाएँ लिखी गई हैं । इसकी शब्दसाधनप्रक्रिया अत्यन्त संक्षिप्त तथा सरल है । संभवतः इसी कारण तिब्बतीय विद्वान् आनन्दध्वज (कुङ्-गा- ग्यल्छन) ने अपने तिब्बती-ग्रन्थ अहमष्टक की व्याख्या में इसे संस्कृतव्याकरणों में शिखामणि के समान कहा है
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[ द्र०, The Complete works of Pandit Kund Ga-rGyal -m Tshan. The Toyo Bunko, Tokyo, 1968; Vol, 5; p. 146, Gr. Nos 3-4 ] कातन्त्रव्याकरण का इतिहास
संस्कृत – वाङ्मय में ८-९ प्रकार के व्याकरणों का उल्लेख मिलता है । उनमें भी दो धाराएँ प्रमुख रूप से प्रचलित रही हैं - माहेश्वर तथा ऐन्द्र व्याकरण की ।