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सन्धिप्रकरणे पञ्चमो विसर्जनीयपादः [विशेष]
१.सन्धि (संहिता संज्ञा) की अनेक परिभाषाएँ - सन्निकर्षः सन्धिः । सुसन्निकर्षः सन्धिः । सन्धिविधेयकार्यं सन्धिः । सन्ध्याश्रयमपि कार्य सन्धिः ।
२. सूत्रोक्त नियमों से भिन्न कुछ उदाहरणों में जहाँ सन्धिकार्य नहीं होता है या प्रवृत्त होता है, उसमें अनेक आधारों, न्यायों का उल्लेख | जैसे – 'नञा निर्दिष्टस्यानित्यत्वात् । अपिशब्दस्य बहुलार्थत्वात् । ऋषिवचनाच्च' ।
[रूपसिद्धि]
१. क इह । कः + इह । अकार से परवर्ती तथा इ - स्वरवर्ण के पर में रहने पर विसर्ग का "अपरो लोप्योऽन्यस्वरे यं वा" (१। ५। ९) से लोप होने पर "अवर्ण इवणे ए" (१। २। २) से प्राप्त एकारादेश का प्रकृत परिभाषासूत्र से निषेध ।
२. देवा आहुः। देवाः + आहुः । आकार से परवर्ती विसर्ग का आकार के पर में रहने पर “आभोभ्यामेवमेव स्वरे'' (१। ५। १०) से लोप होने पर “समानः सवर्णे दीर्घाभवति परश्च लोपम्' (१।२।१) से प्राप्त सवर्णदीर्घ का प्रकृत परिभाषासूत्र से निषेध ।
३. भो अत्र। भोः+ अत्र । 'भो' से परवर्ती विसर्ग का स्वर वर्ण 'अ' के पर में रहने पर “आभोभ्यामेवमेव स्वरे' (१। ५। १०) से लोप हो जाने पर "ओ अव्” (१। २। १४) से प्राप्त ‘अव्' आदेशरूप सन्धि का प्रकृत सूत्र से निषेध ||७७।
७८. रो रे लोपं स्वरश्च पूर्वो दीर्घः (१। ५। १७) [सूत्रार्थ]
रकार के पर में रहने पर पूर्ववर्ती रकार का लोप तथा उस लुप्त रकार से पूर्ववर्ती स्वर को दीघदिश होता है ।।७८।
[दु० वृ०]
रो रे परे लोपम् आपद्यते, स्वरश्च पूर्वो दीर्घो भवति । अग्नी रथेन, पुना रात्रिः, उच्चै रौति ।।७८।