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प्रास्ताविकम्
पुरा किल श्रीसातवाहनाभिधानं वसुधाधिपं झटिति व्युत्पादयितुं प्रतिश्रुतवता भगवता शर्ववर्माचार्येण कुमाराभिधानो भगवान् भवानीसुतस्तपसा समाराधितः, स च तदाराधनाधीनतामुपगतः सन् निजव्याकरणज्ञानमाविर्भावयितुं पद्यपादरूपं सूत्रमिदमादिदेश - सिद्धो वर्णसमाम्नाय इति (क० च० १।१।१ ) |
आचार्य शशिदेव ने अपने व्याख्यानप्रक्रिया नामक ग्रन्थ में कहा है कि अल्पमतिवाले वैदिकों, अन्य शास्त्रों का अनुशीलन करने वालों, दूसरों की निन्दा करने वाले धनिकों, आलसी व्यक्तियों, लोभ में फँसे व्यापारियों तथा अन्य विविध जीविकाओं का अर्जन करने वाले व्यक्तियों को अतिशीघ्र व्याकरण का बोध कराने में यह कलाप व्याकरण समर्थ है । इस प्रकार सरल और संक्षिप्त होने के कारण अल्प समय और अल्प श्रम में ही विविध प्रकार के व्यक्तियों को ज्ञान प्राप्त कराने में समर्थ इस व्याकरण के अनेक, विविध या व्यापक प्रयोजन कहे जा सकते हैं । शशिदेव का वचन इस प्रकार है
विविध नाम -
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छान्दसाः स्वल्पमतयः शास्त्रान्तररताश्च ये । ईश्वरा वाच्यनिरतास्तथालस्ययुताश्च ये ॥ वणिजस्तृष्णादिसंसक्ता लोकयात्रादिषु स्थिताः । तेषां क्षिप्रं प्रबोधार्थमनेकार्थं कलापकम् ॥
( व्या० प्र० १।१५-१६)
१. कातन्त्रम्
ईषद् अल्पं संक्षिप्तं वा तन्त्रं कातन्त्रम् । ईषदर्थक 'कु' शब्द को 'का' आदेश होता है - " का त्वीषदर्थेऽक्षे" (कात० १ | ५ | २५) । तन्त्र्यन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दा अनेन इति तन्त्रं व्याकरणम् | अर्थात् संक्षिप्त व्याकरण को 'कातन्त्र' कहते हैं । ज्ञातव्य है कि यह पूर्ववर्ती पाणिनीय व्याकरण की अपेक्षा संक्षिप्त है, क्योंकि इसमें मूलभूत १४०० ही सूत्र हैं। यह भी ज्ञातव्य है कि स्वामिकार्त्तिकेय ने इसे पाणिनीय व्याकरण का उपमर्दक न कहकर उसकी अपेक्षा इसे स्वल्प महत्त्व का बताया था । इसलिए भी इसे कातन्त्र कहते हैं । कुछ विद्वान् कार्त्तिकेयतन्त्र, काशकृत्स्नतन्त्र, कात्यायनतन्त्र या कालापकतन्त्र को संक्षेप में कातन्त्र कहते हैं । किसी बृहत्तन्त्र का संक्षेप होने के कारण भी इसे कातन्त्र नाम दिया गया है।