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अथ सन्धिप्रकरणे पञ्चमो विसर्जनीयपादः ___६२. विसर्जनीयश्चे छे वा शम् (१।५।१) [सूत्रार्थ]
च् अथवा छ् के पर में रहने पर पूर्ववर्ती विसर्ग 'श्' आदेश प्राप्त करता है । अर्थात् विसर्ग के स्थान में शकारादेश होता है।। ६२ ।
[दु०वृ०] विसर्जनीयश्चे वा छे वा परे शमापद्यते | कश्चरति, कश्छादयति ||६२। [दु०टी०]
विसर्जनीयः। “उमकारयोर्मध्ये" (१।५।७) इति यावत् पदान्त एव संभवति । ननु “अश्चे छे वा शम्" इति विदध्यात् । इहाप्यकार उच्चारणार्थः। अथ स्थानान्तरेऽपीति संज्ञासूत्रमपि न करणीयं स्यात् ? सत्यम् । संज्ञापूर्वको व्यवहारः सुखप्रतिपत्त्यर्थ एव ।।६२।
[क०च०]
विसर्जनीयः। शमित्यस्वरो निर्देशः, श्रुतत्वाल्लुप्ते च प्रमाणाभावात् । अत एव सूत्रनिर्देशाद् वा ||६२।
[समीक्षा]
'कः + चरति, कः + छादयति' इस स्थिति में कलाप-व्याकरण की प्रक्रिया के अनुसार विसर्ग के स्थान में साक्षात् ही शकारादेश होकर 'कश्चरति, कश्छादयति' रूप निष्पन्न होते हैं । जबकि पाणिनि विसर्ग के स्थान में सकारादेश (विसर्जनीयस्य सः ८।३।३४) करने के अनन्तर ही "स्तोः श्चुना श्चुः" (८।४।४०) से श्चुत्वविधान द्वारा उक्त रूपों की निष्पत्ति बताते हैं । यह भी ज्ञातव्य है कि पाणिनि तवर्ग के स्थान में चवर्ग का निर्देश करते हैं, परन्तु वस्तुतः अभीष्ट कार्य केवल 'च-छ्' वर्गों के परवर्ती होने पर प्रवृत्त होता है | इससे भी कलापव्याकरण का प्रक्रियालाघव स्पष्ट है।