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सन्धिप्रकरणे तृतीयः ओदन्तपादः
ई को य् आदेश, 'पटू इमौ ' में "वमुवर्णः” (१।२।९) से ऊ को व् आदेश एवं 'शाले एते, माले इमे' में " ए अयू" (१।२।१२) सूत्र से ए को 'अय्' आदेश हो जाता ।
[विशेष ]
सूत्रस्थ ‘अनौ' पद में नञ् को पर्युदास मानने के कारण और पर्युदास के तद्भिन्न-तत्सदृशग्राही होने से 'अयजावह्यावाम्' तथा 'देवयोरत्र' में प्रकृतिभाव नहीं होता है । ज्ञातव्य है कि 'वहि' एवं 'ओस्' प्रत्यय द्विवचन में होते हैं, परन्तु 'औ' - रूप नहीं हैं | अतः इनका औ से भिन्न सिद्ध होने पर भी 'औ' से सादृश्य उपपन्न नहीं होता । फलतः यहाँ प्रकृतिभाव की प्रवृत्ति भी नहीं होती । पर्युदास तथा प्रसज्यंप्रतिषेध के क्रमिक लक्षण इस प्रकार हैं
प्राधान्यं तु विधेर्यत्र निषेधे चाप्रधानता । पर्युदासः स विज्ञेयो यत्रोत्तरपदे न नञ् ॥ अप्राधान्यं विधेर्यत्र प्रतिषेधे प्रधानता ।
प्रसज्यप्रतिषेधोऽसौ क्रियया सह यत्र नञ् ॥ ४३ ॥
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[रूपसिद्धि]
१. अग्नी एतौ । अग्नि + औ । "औकारः पूर्वम्” (२।१।५१) से औ को इ, “समानः सवर्णे दीर्घीभवति परश्च लोपम्" से इ को दीर्घ ई, परवर्ती औ को लोप । तदनन्तर ‘एतौ’ के आने पर प्रकृत सूत्र से प्रकृतिभाव ।
२. पटू इमौ । पटु + औ । “औकारः पूर्वम्” (२।१।५१) से औ को उ, “समानः सवर्णे दीर्घीभवति परश्च लोपम्” (१।२।१ ) से पूर्ववर्ती उ को ऊ तथा परवर्ती औ का लोप । इमौ से सम्बन्ध किए जाने पर प्रकृतिभाव ।
३. शाले एते । शाला + औ । “औरीम्” (२।२।९) से औ को ई, " अवर्ण इवर्णे ए" (१।२।२) से आ को ए तथा औ का लोप । 'एते' शब्द के पर में आने पर प्रकृतिभाव |
४. माले इमे । माला + औ । “औरीम्” (२।२।९) से औ को ई, “ अवर्ण इवर्णे ए” (१।२।२) से आ को ए तथा औ का लोप । 'इमे' शब्द के संबद्ध होने पर प्रकृतिभाव ।