________________
१५४
कातन्त्रव्याकरणम्
निष्पादिते अनादिष्टस्वरपूर्वत्वमस्तीति चेत्, न ।एवं स्वरादेश इत्यादौ पञ्चम्याः पूर्वयोगेनैवाभिमतं सिद्ध्यति, यत् पुनरत्र पूर्वग्रहणं तन्नियतपूर्वत्वप्रतिपत्त्यर्थम् । ___अत्र च नियतपूर्वत्वं नास्ति, लनुबन्धपदमन्तरेणापि लाकृतिरित्यस्य सिद्धत्वाद् इति । नात्र स्थानिवद्भावस्यावकाशत्वमिति हेमकरः । तन्न । नियतपूर्ववर्तित्वाभावेऽपि स्थानिवद्भावस्यानादिष्टस्वरात् पूर्वं प्रति स्थानिवद्भावस्य दृष्टत्वात् । कथमन्यथा परिभाषावृत्तौ "न पदान्त०" (काला० परि० १६) इत्यादिसूत्रे 'अग्नयः सन्ति, पटवः सन्ति' इत्यादौ स्थानिवद्भावाद् विसर्गस्य उत्वप्राप्तौ पदान्तनिबन्धनस्थानिवद्भावनिषेधो दर्शितः । तत्र नियतपूर्ववृत्त्यभावात् प्राप्तिरेव नास्तीति । सिद्धान्तश्च पुनरत्र पदान्तनिबन्धनस्थानिवद्भावनिषेध इति ।।३४।
[समीक्षा]
पाणिनि तथा शर्ववर्मा के अनुसार ‘ल + अनुबन्धः, लू + आकृतिः' इस दशा में लू के स्थान में लकारादेश होता है । परन्तु शर्ववर्माचार्य द्वारा इसके विधानार्थ किए गए स्वतन्त्रसूत्रनिर्देश से अर्थावबोध में जो सरलता होती है, वह पाणिनि द्वारा किए गए इकारादि चार इक् के स्थान में यकारादि चार यण-विधान से नहीं । उसके सम्यक् अवबोधार्थ अतिरिक्त प्रयत्न करना पड़ता है |अतः कलापव्याकरण की सूत्ररचना सरलतया अर्थावबोधिका होने के कारण अधिक उपयोगिनी कही जा सकती है।
[रूपसिद्धि]
१. लनुबन्धः। तृ + अनुबन्धः (तृ + अ) असवर्ण अ के पर में होने के कारण पूर्ववर्ती लु के स्थान में लकारादेश तथा परवर्ती अ-वर्ण के लोप का निषेध ।
२. लाकृतिः । ल + आकृतिः (लू + आ)। आ-वर्ण यहाँ असवर्ण तथा परवर्ती है । अतः पूर्ववर्ती ल के स्थान में लकारादेश तथा परवर्ती आ- के लोप का निषेध ||३४।
३५. ए अय् (१।२।१२) [सूत्रार्थ]
असवर्ण स्वर के पर में रहने पर पूर्ववर्ती एकार के स्थान में 'अय्' आदेश होता है, परन्तु परवर्ती वर्ण का लोप नहीं होता है ।।३५ ।