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कातन्त्रव्याकरणम्
[रूपसिद्धि]
१. दण्डाग्रम् । दण्ड + अग्रम् (अ + अ)। डकारोत्तरवर्ती एवं समानसञ्ज्ञक 'अ' के स्थान में 'आ' आदेश तथा उत्तरवर्ती अ का लोप |
२. सागता। सा + आगता (आ+ आ)। सकारोत्तरवर्ती 'आ' के स्थान में 'आ' आदेश तथा परवर्ती आ का लोप |
३. दधीदम्। दधि + इदम् (इ +इ)। धकारोत्तरवर्ती तथा समानसंज्ञक 'इ' के स्थान में 'ई' आदेश एवं परवर्ती 'इ' का लोप |
४. नदीहते । नदी + ईहते (ई+ई)। दकारोत्तरवर्ती ई के स्थान में 'ई' आदेश और परवर्ती ई का लोप ।
५. मधूदकम् । मधु + उदकम् (उ + उ) | धकारोत्तरवर्ती 'उ' के स्थान में 'ऊ' आदेश एवं परवर्ती ऊ का लोप ।
६. वधूढम्। वधू+ ऊढम् (ऊ+ऊ)। धकारोत्तरवर्ती ऊ के स्थान में 'ऊ' आदेश, परवर्ती ऊ का लोप ।
७. पितृषभः। पितृ + ऋषभः (ऋ+ ऋ)। तकारोत्तरवर्ती ऋ को ऋ आदेश तथा परवर्ती ऋ का लोप ।
८. कृकारः। कृ + ऋकारः (ऋ+ ऋ) । पूर्वककारोत्तरवर्ती कृ को कृ आदेश, अथ च परवर्ती ऋ का लोप ।
९. क्लृकारेण । क्ल + लृकारेण (लू + ) | पूर्वककारोत्तरवर्ती लू के स्थान में ल आदेश तथा परवर्ती लू का लोप ।
१०. होतृकारः। होतृ + लृकारः (ऋ + लु) । तकारोत्तरवर्ती ऋ के स्थान में ऋ आदेश तथा परवर्ती लू का लोप |
ऋवर्ण - तृवर्ण की सवर्णसंज्ञा के लिए पाणिनीयादि व्याकरणों में वार्त्तिकादिवचन पढ़े गए हैं, परन्तु कातन्त्र में यह कार्य लोकव्यवहारानुसार ही स्वीकार कर लिया जाता है।
पाणिनीय व्याकरण में इस विधि के 'दैत्यारिः, श्रीशः, विष्णूदयः' आदि उदाहरण प्रसिद्ध हैं।