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कातन्त्रव्याकरणम्
पाणिनि ने भी अनेक सूत्रों में लोकप्रामाण्य को स्पष्टरूप में स्वीकार किया है, फिर भी उन्होंने कुछ वैदिक शब्दों में भी प्रकृति-प्रत्यय तथा स्वरयोजना के लिए सूत्र बनाए हैं । यह प्रसिद्ध है कि पाणिनि ने कालविषयक परिभाषा नहीं की है । अर्थात् उनका व्याकरण कालपरिभाषारहित है, फलतः उसे अकालक कहा जाता है - 'पाणिन्युपज्ञमकालकं व्याकरणम्' (का० वृ० २।४।२१)। काल की तरह प्रत्ययार्थप्राधान्य, उपसर्जन आदि विषयों में भी उनका यही मत है - "प्रधानप्रत्ययार्थवचनमर्थस्यान्यप्रमाणत्वात्, कालोपसर्जने च तुल्यम्" (अ० १।२।५६५७) । परन्तु पाणिनि की भी अपेक्षा आचार्य शर्ववर्मा ने लोकव्यवहार की प्रामाणिकता अधिक स्वीकार की है। इनके दो प्रमुख सूत्र इस प्रकार हैं"सिद्धो वर्णसमाम्नायः; लोकोपचाराद् ग्रहणसिद्धिः” (१।१।१; २३) ।।२३।
॥ इति प्रथमे सन्धिप्रकरणे समीक्षात्मकः प्रथमः सञ्जापादः समाप्तः॥