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सन्धिप्रकरणे प्रथमः सजापादः पाणिनि ने "विसर्जनीयस्य सः" (अ० ८।३।३४) आदि. सूत्रों में विसर्जनीय का प्रयोग तो किया है, परन्तु उसकी कोई परिभाषा नहीं की है और न उनके द्वारा समादृत वर्णसमाम्नाय में विसर्ग का पाठ ही किया है । इससे कहा जा सकता है कि पाणिनि पूर्वाचार्यों के सिद्धान्त से सहमत हैं, इसीलिए उन्होंने कोई संज्ञासूत्र नहीं बनाया ।
कलापव्याकरण के वर्णसमाम्नाय में विसर्ग का पाठ होने तथा उसके लिए संज्ञासूत्र किए जाने से यह सिद्ध है कि कलाप व्याकरण में विसर्ग को अयोगवाह के रूप में नहीं, अथ च योगवाह के रूप में ही माना गया है। ज्ञातव्य है कि पाणिनीय व्याकरण के वर्णसमाम्नाय में विसर्ग का पाठ नहीं है और न उसके लिए संज्ञासूत्र ही है, परन्तु सूत्रों में उसका उल्लेख हुआ है । फलतः उसे अयोगवाह के रूप में स्वीकार किया जाता है।
इसकी लिपि का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि ऊपर-नीचे स्थित दो बिन्दुओं को विसर्ग कहते हैं - "ऊर्ध्वाधःस्थं बिन्दुयुग्मं विसर्ग इति गीयते" (प्र० र० मा० १।२९)। लिपिस्वरूप का सादृश्य कुछ अन्य वस्तुओं के साथ भी बताया गया है । तदनुसार छोटे बछड़े के दो सींगों, कुमारी के दो स्तनों तथा काले सर्प के दो नेत्रों की तरह विसर्ग होता है।
शृङ्गवद् बालवत्सस्य कुमार्याः स्तनयुग्मवत् ।
नेत्रवत् कृष्णसर्पस्य स विसर्ग इति स्मृतः॥ (विसर्गस्त्रिविधः स्मृतः - पाठा०) (टे० ८० टे०, भा० १, पृ० २२५)।
विसर्ग तथा विसर्जनीय पर्याय शब्द हैं और पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग में गौरव - लाघव का विचार नहीं होता । पूर्वाचार्यों द्वारा भी इसका व्यवहार किया गया है। जैसे
ऋमातिशाख्य - "सहोपधो रिफित एकवर्णवद् विसर्जनीयः स्वरघोषवत्परः" (१।६७)।
वाजसनेविप्रातिशाख्य - "अः इति विसर्जनीयः” (८।२२)।
अथर्ववेदप्रातिशाख्य - “विश्वा विसर्जनीयान्ताः; नकारस्य विसर्जनीयः" (२।२।९; ३।३।१)।
ऋक्तन्त्र- “अः इति विसर्जनीयः” (१।२) ।।१६।