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कातन्त्रव्याकरणम्
नाट्यशास्त्र - “य इमे स्वराश्चतुर्दश निर्दिष्टास्तत्र वै दश समानाः, पूर्वो ह्रस्वस्तेषां परश्च दी| विधातव्यः' (१४।२०)। "द्विमानं दीर्घमुच्यते' (१६।१२३)।
कलाप के अतिरिक्त कुछ अन्य अर्वाचीन व्याकरणों में दीर्घ-संज्ञाविधायक सूत्र इस प्रकार हैं
चान्द्रव्याकरण- अत्र चाव! ह्रस्वो दीर्घः प्लुत इति त्रिधा भिन्नः; द्विमात्रिको दीर्घः' (वर्णसूत्र ३६, ४२)।
जैनेन्द्रव्याकरण- "आकालोऽच् प्रदीपः” (१।१।१)। हेमचन्द्रशब्दानुशासन- “एकद्वित्रिमात्रा ह्रस्वदीर्घप्लुताः” (१।१।५)। मुग्धबोधव्याकरण - “आवत् स्वर्घप्लु" (सूत्र ५)।
उक्त के अनुसार देवनन्दी ने इसके लिए एकदेश 'दी' का तथा बोपदेव ने 'ई' का प्रयोग किया है।
[विशेष]
वृत्तिकार दुर्गसिंह ने ह्रस्व की लघुसंज्ञा तथा दीर्घ की गुरु संज्ञा उच्चारण के आधार पर मानी है और इस प्रकार उन्होंने शर्ववर्मा-द्वारा लघु-गुरु संज्ञाओं के लिए सूत्र न बनाया जाना उचित ठहराया है। संयोग-संज्ञक वर्ण के पर में रहने पर पूर्ववर्ती ह्रस्व के भी उच्चारण में प्रायः द्विमात्रिक काल अपेक्षित होता है, अतः तादृश ह्रस्व की भी संयोग संज्ञा स्वीकार की जा सकती है । तदर्थ पृथक् सूत्र की कोई आवश्यकता नहीं है | पाणिनीय व्याकरण में इन संज्ञाओं के लिए सूत्र पढ़े गए हैं - "हस्वं लघु, संयोगे गुरु, दीर्घ च” (१।४।१०, ११, १२)।६।
७. स्वरोऽवर्णवों नामी (१।११७) [सूत्रार्थ]
स्वरसंज्ञक १४ वर्गों में से अवर्ण (अ-आ) को छोड़कर शेष १२ स्वरों की नामी संज्ञा होती है । नामिसंज्ञक वर्ण - इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ ।।७।
[दु० वृ०]
अवर्णवर्जः स्वरो नामिसंज्ञो भवति । इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ । नामिप्रदेशा:- “नामिपरो रम्' (१।५।१२) इत्येवमादयः ।।७।