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सन्धिप्रकरणे प्रथमः सनापादः "ब्रह्मा बृहस्पतये प्रोवाच, बृहस्पतिरिन्द्राय, इन्द्रो भरद्वाजाय, भरद्वाज ऋषिभ्यः, ऋषयो ब्राह्मणेभ्यस्तं खल्विममक्षरसमाम्नायमित्याचक्षते" (ऋ० त० १।४)।
पतञ्जलि के अनुसार यह वाक्समाम्नाय शब्दज्ञान से पुष्पित तथा शब्दों के समुचित प्रयोग से फलित होता है | अनादिकाल से सिद्ध चन्द्र-तारों के समान सुशोभित यह ब्रह्मराशि है । इसके ज्ञान से सभी वेदों के अध्ययन का पुण्य प्राप्त होता है
और ज्ञानसम्पन्न व्यक्ति के माता-पिता स्वर्गलोक में पूजनीय होते हैं___“सोऽयमक्षरसमाम्नायो वाक्समाम्नायः पुष्पितः फलितश्चन्द्रतारकवत् प्रतिमण्डितो वेदितव्यो ब्रह्मराशिः। सर्ववेदपुण्यफलावाप्तिश्चास्य ज्ञाने भवति । मातापितरौ चास्य स्वर्गे लोके महीयेते" (म० भा०, आ० २ - अन्ते)।
ज्ञातव्य है कि शास्त्रकारों ने वर्गों की संख्या भिन्न-भिन्न रूप में स्वीकार की है। जैसे -
अहिर्बुध्यसंहिता - अ० १६ = १४ स्वर + ३४ व्यञ्जन = ४८ अहिर्बुध्यसंहिता - अ० १७ = १७ स्वर + ३४ व्यञ्जन = ५१ यजुःप्रातिशाख्य - = २३ स्वर + ४२ व्यञ्जन = ६५ पाणिनीयशिक्षा – = ६३, ६४ वैदिकाभरण - = ५९ ... वशिष्ठशिक्षा = ६८
नन्दिकेश्वर ने २७ कारिकाओं में ४२ वर्गों का क्रम तथा उनके अर्थ पर विशेष विचार किया है । वर्गों के उच्चारणस्थान, प्रयत्न तथा करणों का विचार शिक्षाग्रन्थों में उपलब्ध होता है ।।१।
२. तत्र चतुर्दशादौ स्वराः (११११२) [सूत्रार्थ] वर्णसमाम्नाय के ५२ वर्गों में प्रारम्भिक १४ वर्गों की स्वरसञ्ज्ञा होती है।।२। [दु० वृ०]
तस्मिन् वर्णसमाम्नायविषये आदौ ये चतुर्दश वर्णास्ते स्वरसञ्ज्ञा भवन्ति । अ आ, इ ई, उ ऊ, ऋ ऋ, ल लू, ए ऐ, ओ औ । यथाऽनुकरणे ह्रस्वलकारोऽस्ति