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क्रिया तथा कारक
कारण प्रमुख चार ही कारक स्वीकार्य हुए होंगे, बाद में क्रिया-विशेष से सम्बन्ध रखने के कारण सम्प्रदान-अपादान भी कारकों में अन्तर्भूत हुए। ऊपर हम लोग देख ही चुके हैं कि छहों कारकों के विकास में चार चरण लगे हैं।
(३) धातु से वाच्य क्रिया की वृत्ति उक्त चार ही कारकों में होती है, सम्प्रदानअपादान में नहीं । यही कारण है कि इन दोनों की कर्तृत्वविवक्षा नहीं होती। किन्तु क्रिया के प्रकृत धातु से अवाच्य होने का यह अर्थ नहीं है कि उसमें क्रियाबोध हो ही नहीं रहा है । क्रिया तो सम्प्रदान-अपादान में रहती ही है। हाँ, यह अवश्य है कि अपादान में मुख्य स्थान जो अपाय ( विभाग ) का है, वह प्रयुक्त धातु का वाच्य नहीं हो। अपादान में अवधि-स्थित व्यापार तथा सम्प्रदान में अनुमति आदि देने का व्यापार तो है ही। व्यापार धातु से वाच्य ही हो, यह आवश्यक नहीं। प्रतीयमान व्यापार भी कारक-व्यवहार का प्रयोजक है ।
भाष्यकार पतञ्जलि ने जो अन्य कारकों के कर्तृत्व-निदर्शन के समय 'अपादानादीनां त्वप्रसिद्धिः' (पृ० २४३ ) कहा है वह वास्तव में पूर्वपक्ष से दिया गया आक्षेप-वार्तिक है । इसका अभिप्राय यही है कि अपादान-सम्प्रदान का कर्तृत्व हो सकता है किन्तु व्यवहार में नहीं चलता । 'कारक' शब्द में दो खण्ड हैं-प्रकृति ( कृ-धातु ) तथा प्रत्यय ( तृच्-प्रत्यय-कर्षर्थक )। यदि प्रत्यय पर बल देंगे तो इन दोनों कारकों के कारकत्व-व्यवस्थापन में कठिनाई होगी, किन्तु यदि प्रकृति पर ध्यान दें तो क्रिया से सम्बन्ध तो उनका भी है ही।
निष्कर्षतः सम्प्रदान तथा अपादान भी कारक ही हैं, यद्यपि इन्हें कारकों के बीच स्थान अन्तिम चरण में मिला होगा-ऐसा अनुमान होता है। तदनुसार कारकों की कुल संख्या छह होती है। इनकी संख्या में वृद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि नाम तथा क्रिया में दूसरे प्रकार के ( छह के अतिरिक्त ) सम्बन्धों के होने पर भी वे सम्बन्ध बहुत ही दूर से अन्वित होते हैं, जिन्हें न्याय की भाषा में हम' 'अन्यथासिद्ध' कह सकते हैं। कुम्भकार का पिता घट का कारण नहीं कहला सकता, भले ही वह घटकर्ता कुम्भकार का कारण है। उसी प्रकार दूरान्वय-दोष से ग्रस्त पदार्थ क्रिया के निमित्त नहीं होते। इन सम्बन्धों को उपपद-सम्बन्ध कहते हैं जिसका विचार हम अगले अध्याय में करेंगे। किसी भी भाषा में कारक का उपर्युक्त लक्षण देने पर छह से अधिक कारक हो ही नहीं सकते। उनकी न्यूनतम संख्या दो है, क्योंकि क्रिया के फल तथा व्यापार को धारण करनेवाले तो कोई होंगे ही।
१. 'शब्दशक्तिस्वाभाव्याच्चापादानसम्प्रदानव्यापारे धातुनं वर्तते । वस्तुतस्त्वपादानस्यावधिभावनावस्थानं व्यापारोऽस्ति, सम्प्रदानस्याप्यनुमननादिलक्षणः । प्रतीयमानोऽपि व्यापारः कारकव्यपदेशनिबन्धनम् । यथा-प्रविश पिण्डीमिति' ।
–कयटकृत प्रदीप २, पृ० २४४ । २. नागेशकृत उद्योत २, पृ० २४४ ।