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क्रिया तथा कारक
(२) क्रियान्वयित्वं कारकत्वम-क्रिया से अन्वय अर्थात् वाक्यगत सम्बन्ध रखनेवाले को कारक कहते हैं । इस लक्षण में यह दोप है कि 'शीघ्र धावति' जैसे वाक्यों में क्रियाविशेषण का क्रिया से साक्षात् अन्वय होने के कारण उन्हें कारक मानना पड़ेगा, किन्तु सिद्धान्ततः क्रियाविशेषण कभी कारक नहीं कहला सकते । भवानन्द ने कारकचक्र में इसी लक्षण में विशेषण लगाकर इसका परिष्कार किया हैविभक्त्यर्थद्वारा क्रियान्वयित्वं मुख्यभाक्तसाधारणं कारकत्वम् । कारक विभक्त्यर्थ के माध्यम से क्रिया से अन्वित होता है । 'स्तोकं पचति' इत्यादि क्रियाविशेषणों में विभक्ति अभेदार्थक नहीं है, उसका उद्देश्य साधुत्वमात्र का सम्पादन करना है। इसलिए उसमें विभक्ति रहने पर भी नैयायिकों को अभिमत विभक्त्यर्थ-रूप ( कमंत्वादि ) विषय आश्रित नहीं है । इसलिए कारक होना सम्भव नहीं।
जगदीश इस विषय में कहते हैं कि 'स्तोक' शब्द क्रिया में प्रकारीभूत होने पर भी इसलिए कारक नहीं है क्योंकि सुप्-प्रत्यय उसे उपस्थित नहीं करता। द्वितीया विभक्ति तो उसमें नपुंसकलिंग के समान केवल शास्त्रदृष्टि से ( आनुशासनिकी ) पदसाधुत्व के निर्वाहार्थ लगायी गयी है । क्रिया के अन्वय से कहीं तो मुख्य कारकत्व होता है; जैसे- 'ग्रामं गच्छति' में ग्राम, किन्तु कहीं गौण कारक भी होता है; जैसे-- 'घटं जानाति' में घट२ । भवानन्द कहते हैं कि क्रिया का निमित्त होने पर मुख्य कारक होता है। तदनुसार यह लक्षण निष्पन्न होता है कि मुख्य कारक वह है जो क्रिया का निमित्त होने के साथ-साथ विभक्त्यर्थ द्वारा क्रिया से अन्वित भी हो। इसी प्रकार क्रिया का अनिमित्त होने पर जो विभक्त्यर्थ के द्वारा क्रिया से अन्वित होता है, वह गौणकारक कहा जाता है । दोनों ही स्थितियों में क्रिया की निमित्तता-साक्षात् हो या परम्परागत -प्रयोजक रहती है । कारक कहने से दोनों का संनिवेश होता है-मुख्य और गौण । किन्तु अन्त में भवानन्द को विभागमुखेन कारक का लक्षण करना पड़ता है जो सर्वथा उचित है—'कर्तृकर्मत्वादिषट्कान्यतमत्वे सति क्रियान्वयित्वं कारकत्वम्' ।
(३) धात्वर्थाशे प्रकारो यः सुबर्थः सोऽत्र कारकम् -कारक का यह लक्षण जगदीश के द्वारा शब्दशक्तिप्रकाशिका में स्वीकार किया गया है। उन्होंने सुप विभक्ति के दो भेद किये हैं-कारकबोधिका तथा तदितरबोधिका ( उपपदविभक्ति )। धातु के द्वारा उपस्थित कराये जाने वाले अर्थ के अन्वय में जो प्रकार के रूप में ( विशेषणतया ) प्रतीत होनेवाला सुबर्थ है वही कारक है। 'वृक्षात्पतति' में जो पत्-धातु का पतन अर्थ है, उसमें पञ्चमी के द्वारा विभागरूप अर्थ उपस्थित कराया जाता है। वह अर्थ ( विभाग ) पतन क्रिया का प्रकाररूप है तथा कारक है । इसलिए इस स्थल
१. शब्दशक्तिप्र०, कारिका ६७ । २. कारकचक्रव्याख्या, माधवी पृ० ५-६ । ३. का० च०, पृ० ७ ।