________________
६२
संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
रूप ग्रहण करें तो उनमें भेद प्रतीत नहीं होगा और उन सभी द्रव्यों की एक ही स्थिति होगी कि वे छिदि-क्रिया की सिद्धि में साधकतम हैं । तात्पर्यतः वे सभी करण कारक ( या करणत्वशक्ति ) धारण करते हैं ।
कारक - लक्षण विमर्श ( अन्य लक्षणों पर विचार )
ऊपर हमने कारक की शक्तिरूपता का निदर्शन किया है । अब यहाँ लोक में प्रचलित विभिन्न कारक- लक्षणों की समीक्षा करेंगे। कारक के सभी लक्षण उसके क्रियासम्बन्ध का निरूपण तो करते हैं, किन्तु विभिन्न कारणों से अव्याप्ति या अतिव्याप्ति दोष के भागी हो जाते हैं । फिर भी कुछ लक्षणों में कारक के बहिरंग का सम्यक् निरूपण हुआ है ।
1
( १ ) क्रियानिमित्तत्वं कारकत्वम् - कारक का यह लक्षण दुर्गासिंह ने कलापव्याकरण में दिया है, जिससे उस सम्प्रदाय - मात्र में इसका प्रचुर प्रचार है । इसमें कारक को क्रिया का निमित्त कारण माना गया है । इस लक्षण पर नैयायिकों तथा पाणिनीय वैयाकरणों की आरम्भ से ही वक्रदृष्टि रही है । वे इसमें अतिव्याप्ति तथा अव्याप्त दोनों दोष ढूंढ निकालते हैं । 'चैत्रस्य तण्डुलं पचति' इस वाक्य में इस लक्षण के अनुसार चैत्र को, जो सम्बन्धि पद है, क्रिया का निमित्त होने के कारण कारक माना जा सकता है, क्योंकि वह भी अपने घर से चावल देकर या अनुमति से ही पाकक्रिया का निमित्त कारण बना हुआ है । अतः यह लक्षण चैत्रादि- सम्बन्धी को भी कारक में अन्तर्भूत कर लेने के कारण अतिव्याप्ति - दोष से ग्रस्त है' ।
दूसरी ओर इसमें अव्याप्ति भी है । निमित्त कारण को अपने कार्य से पूर्ववर्ती होना चाहिए तभी उसकी कारणता उत्पन्न हो सकती है । किन्तु 'घटं करोति' में, जहां घट निर्वर्त्य कर्म है, क्रिया ( कार्य ) ही अपने तथाकथित निमित्त ( कारण ) के पूर्व ह। जाती है, क्योंकि क्रिया के ही द्वारा घट की उत्पत्ति होती है । इसलिए घट क्रिया का निमित्त नहीं रह सकेगा और इसीलिए कारक भी नहीं होगा । कलाप के सुप्रसिद्ध टीकाकार सुषेण कविराज ने इसका उत्तर दिया है कि यहाँ क्रिया की सिद्धि में घट का ज्ञान पूर्ववर्ती है, यह पूर्ववर्तिका घट पदार्थ पर भी उपचरित होती है । अतः कोई दोष नहीं रह जाता २ । सांख्यदर्शनोक्त सत्कार्यवाद के आधार पर भी इस दोष का निवारण किया जा सकता है, क्योंकि तदनुसार घट सूक्ष्मरूप से अव्यक्ततया अपने कारण में तो विद्यमान है ही; वही क्रिया का निमित्त कारण है । क्रियानिमित्तत्व की ही स्थिति में इस प्रकार के अन्य लक्षण भी हैं; जैसे – क्रियाजनकत्वम्, क्रियानिष्पादकत्वम् । न्यूनाधिकरूप से उक्त कारकलक्षण ही इनमें भी विद्यमान है ।
१. 'चैत्रस्य तण्डुलं पचतीति सम्बन्धिनि चैत्रादावतिव्याप्तेः । अनुमत्यादिप्रकाशनद्वारा सम्प्रदानादेव तण्डुलादिद्वारा सम्बन्धिनोऽपि क्रियानिमित्तत्त्वात्' ।
- प० ल० म०, पृ० १६९
२. Cf. P. C. Chakravarti, P. S. G. p. 218.