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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन प्रतीत होती है । जैसे—'वहति' क्रिया का प्रसिद्ध अर्थ है-'दूसरे स्थान में पहुंचा देना' । इस अर्थ में यह सकर्मक है; यथा-'भृत्यो भारं वहति, वारिवाहः' इत्यादि । किन्तु यदि यही स्यन्दन (प्रवाहित होना ) क्रिया का बोध कराये तो इसे अकर्मक कहेंगे; यथा-'नदी वहति' । यहाँ 'किम्' इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल सकता ( किमित्वनुयोगाभावादकर्मकः-हेलाराज )।
(२) धात्वर्थ में कर्म का अन्तर्भाव-जब किसी क्रिया के अन्तर्गत ही कर्म का समावेश हो जाय और उसका पता न चले तब इस कर्मरहित क्रिया को अकर्मक ही कहते हैं; जैसे-जीवति । यह क्रिया इसलिए अकर्मक है क्योंकि इसके वास्तविक अर्थ 'प्राणान् धारयति' में स्थित प्राणरूप कर्म इसी में समाविष्ट हो गया है । इसी प्रकार 'प्राणान् जहाति' के कर्म का उपसंग्रह ( अन्तर्भाव ) करने वाली क्रिया 'म्रियते' अकर्मक है। 'नृत्यति' ( = गात्रं विक्षिपति ) तथा 'अस्ति' ( आत्मानं बिभर्ति ) भी इसी प्रकार अकर्मक हैं।
( ३ ) प्रसिद्धि-कभी-कभी ऐसे व्यवहार देखे जाते हैं कि जहाँ ( जिन धातुओं में ) निरपवाद रूप से ( अव्यभिचारेण ) निश्चित कर्म की प्रतीति हो रही हो किन्तु वहाँ अकर्मक है, क्योंकि उसका कर्म अत्यन्त प्रसिद्ध रहता है; जैसे-वर्षति । सभी जानते हैं कि इसका कर्ता मेघ ( देवः ) है तथा कर्म अत्यन्त प्रसिद्ध जल है । इसी से इसमें कर्तवाच्य वाले क्त-प्रत्यय का प्रयोग होता है-वृष्टो देवः । इसी क्रिया में जब किसी अप्रसिद्ध कर्म का निर्देश करते हैं तब वह सकर्मक हो जाती है; यथा-रुधिरं वर्षति, शरान् वर्षति । साथ ही कर्मवाच्य वाले क्त-प्रत्यय का भी प्रयोग होता हैपांसवो वृष्टाः ।
(४) कर्म की अविवक्षा-कहीं-कहीं क्रिया के साथ कर्म का सम्बन्ध विद्यमान रहने पर भी वक्ता इसलिए उसे प्रकट करना नहीं चाहता क्योंकि उसे केवल क्रिया का प्रतिपादन अभिप्रेत रहता है । वहाँ भी क्रिया अकर्मक होती है; यथा--नेह पच्यते, नेह भुज्यते । क्रिया का प्रतिषेधमात्र अभिप्रेत रहने से भाववाच्य में लकार हुआ है। इसी प्रकार 'दीक्षितो न ददाति, न पचति, न जुहोति', 'हितान्न यः संशृणुते' (किरातार्जुनीय १।४ ) इत्यादि में कर्म अविवक्षित है। यहाँ 'किम्' की अपेक्षा है ही नहीं, क्योंकि क्रिया के प्रतिषेध में ही सम्पूर्ण शक्ति लगी हुई है। यही वक्ता का तात्पर्य है।
पाणिनि ने 'लः कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः' ( पा० सू० ३।४।६९ ) में सकर्मक तथा अकर्मक धातुओं के वाच्यों की व्यवस्था की है। सकर्मक धातुओं से जहाँ कर्तृवाच्य और कर्मवाच्य ( साथ ही कर्मकर्तृवाच्य भी ) होते हैं, अकर्मक धातुओं से कर्तृवाच्य एवं भाववाच्य होते हैं । अकर्मक में कर्म होता ही नहीं जिससे फल का आश्रय होकर लकार के द्वारा अभिहित हो सके। कर्मवाच्य के स्थान पर उसमें भाववाच्य होता है, जिसमें धात्वर्थमात्र की प्रधानता होती है। इनके निम्नांकित उदाहरण हैं
१. हेलाराज, वहीं।