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क्रिया तथा कारक
नहीं होती। किन्तु इससे धात्वर्थ-विषयक वैयाकरण-सिद्धान्त खण्डित नहीं होता। हम यह कहें कि फल-विशिष्ट व्यापार का वाचक अकर्मक है ।
यद्यपि सामान्यरूप से सकर्मक धातु फल और व्यापार की समानाधिकरणता होने से ही होता है, किन्तु नागेश सकर्मक धातु को पारिभाषिक से अधिक यौगिक मानते हैं । उनके अनुसार सकर्मक वह नहीं है जिस धातु के उच्चारण के बाद कर्म की आकांक्षा नियत हो। 'गच्छति' आदि में उसकी आकांक्षा नहीं होने पर भी सकर्मकता होती है । यह लक्षण भी ठीक नहीं है कि अकर्मक से भिन्न धातुओं को सकर्मक कहते हैं, क्योंकि सकर्मक धातु भी कई स्थितियों में अकर्मक होते देखे जाते हैं । तब सकर्मक क्या है ? इस शास्त्र ( पाणिनि-व्याकरण ) में प्रतिपादित कर्म संज्ञावाले पदार्थों से अन्वित क्रिया ही सकर्मक है। जो क्रिया उससे अन्वित नहीं है वह अकर्मक है । इसी से 'अध्यासिता भूमयः' जैसे प्रयोग उपपाद्य हैं । इसमें 'अधिशीस्थासां कर्म' ( पा० सू० १।४।४६ ) सूत्र के अनुसार भूमिरूप आधार को कर्मसंज्ञा हुई है । वह कर्मवाचक 'क्त'-प्रत्यय के द्वारा अभिहित भी हुआ है। तदनुसार अधि+आस् सकर्मक धातु है। सकर्मक के दूसरे लक्षणों के द्वारा इस कर्मवाच्यप्रयोग की सिद्धि सम्भव नहीं है। कर्मवाच्य चूंकि सकर्मक धातुओं से ही होता है, अतः अधि+आस् को सकर्मक मानना आवश्यक है और यह भी तभी सम्भव है जब नागेश का उपर्युक्त सकर्मकत्व-लक्षण माना जाय । इसी प्रकार 'प्रासादोऽधिष्ठितः अधिशय्यते' इत्यादि प्रयोग भी कर्मवाच्य में इसी लक्षण के बल पर होते हैं । निष्कर्षतः 'कर्मणा सह वर्तते इति सकर्मकः' इस यौगिक अर्थ में ही सकर्मक का अर्थ होना चाहिए। ___इस प्रसंग में यह भी ज्ञातव्य है कि कभी-कभी बाह्य कर्म की सत्ता होने पर भी धात अकर्मक कहलाता है । इससे ज्ञात होता है कि बाह्य ( स्थूल ) कर्म का रहना ही सकर्मकता का नियामक नहीं है। इससे नागेश के मत का महत्त्व समझ में आता है । भर्तहरि अकर्मक धातु के नियामक तत्त्वों का निरूपण इस प्रकार करते हैं
धातोरान्तरे वृत्तेर्धात्वर्थेनोपसङ्ग्रहात् । प्रसिद्धरविवक्षातः कर्मणोऽमिका क्रिया ॥
-वा०प० ३१७।८८ इस कारिका के अनुसार अधोलिखित चार परिस्थितियों में अकर्मक क्रिया होती है
( १ ) अर्थान्तर में धातु की वृत्ति-जब कोई धातु अपने प्रसिद्ध अर्थ को छोड़कर किसी भिन्न अर्थ में वर्तमान हो तो कर्म के समन्वय से रहित क्रिया वाच्यरूप में
१. प० ल० म०, वंशी, पृ० ५४ ।
२. 'वस्तुतस्त्वेतच्छास्त्रीयकर्मसंज्ञकार्यान्वय्यर्थकत्वं सकर्मकत्वम् । तदनन्वय्यर्थकत्वमकर्मकत्वम्'।
-ल० म०, पृ० ५६६ तथा ६८ ३. 'क्वचित्पुनर्वस्तुतो बाह्यकर्मसद्भावेऽप्यकर्मकव्यपदेशो भवतीत्याह' ।
-हेलाराज, वा० प० ३, पृ० ३०३