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अधिकरण-कारक
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क्रिया की निष्पत्ति में भी सहायता पहुँचाता है वही इस ( व्याकरण ) शास्त्र में अधिकरण समझा जाता है । लोक में अधिकरण के विषय द्रव्य, गुण तथा क्रिया--ये तीनों हैं, किन्तु इस शास्त्र में कारकों के अन्तर्गत होने से क्रिया का अध्याहार ( आक्षेप ) अनिवार्य है, अतः क्रिया में ही एक विशेष प्रकार का उपकार होने ( अर्थात् उसे धारण करने ) के कारण अधिकरण-संज्ञा की व्यवस्था होती है। कर्तस्थ क्रिया के अधिकरण का उदाहरण है-कटे शेते ( चटाई पर सोता है )। यहाँ शयन-क्रिया कर्ता में स्थित है तथा उसी का आधार होने के कारण 'कट' क्रियाधार या अधिकरण है । कर्मस्थ क्रिया के अधिकरण का उदाहरण है-'स्थाल्यां पचति' । यहाँ विक्लित्ति रूप फलवाली पाकक्रिया ओदनादि कर्म में वर्तमान है। चूंकि उस कर्म का आधार स्थाली है अतः वह अधिकरण है । कर्ता या कर्म को धारण करके उसमें समवाय-सम्बन्ध से वर्तमान क्रिया की सहायता ( उपकार ) अधिकरण परम्परया करता ही है, क्योंकि यदि अधिकरण न हो तो कर्ता या कर्म भी क्रिया के उपकारक नहीं हो सकते । अतः आधार इन दोनों का तो उपकार करता ही है, इनके माध्यम से क्रियोपकारक भी है। कारक यदि क्रिया का जनक व्यवहित रूप में भी हो तो कोई हानि नहीं२ । अधिकरण
और क्रिया के बीच व्यवधान की पुष्टि भर्तृहरि के दो शब्दों से होती है—'व्यवहिताम्' तथा 'असाक्षात्' । तदनुसार व्यवधान अधिकरण में बहुत आवश्यक है।
इस दृष्टि से करण तथा अधिकरण परस्पर प्रतिलोम हैं कि करण और क्रिया के बीच लवमात्र भी व्यवधान नहीं होता, जब कि क्रिया और अधिकरण में व्यवधान अनिवार्य है। कर्ता या कर्म का व्यापार करण के पूर्व होता है, जब कि अधिकरण के पश्चात् ही उनकी स्थिति होती है।
इस साक्षात् और असाक्षात् क्रियोपकार को लेकर एक दूसरा प्रश्न उपस्थित होता है कि कर्ता और कर्म को साक्षात् क्रियाधार होने से मुख्य आधार क्यों नहीं कह दें? दूसरी ओर कर्ता और कर्म के आधार रूप कटादि को गौण आधार कहना चाहिए, क्योंकि ये असाक्षात् क्रियाधार हैं । जब मुख्य आधार है ही तब गौण आधार को किस प्रकार अधिकरण-संज्ञा दी जा सकती है ? उत्तर में यह कह सकते हैं कि करण के लक्षण में तमप्-प्रत्यय का प्रयोग यह बतलाता है कि गौण आधार को भी अधिकरण कहा जा सकता है। किन्तु यह कोई उत्तर नहीं है। गौण आधार को हम अधिकरण भले ही कह लें, किन्तु मुख्य आधार ( कर्ता, कर्म ) को यह संज्ञा क्यों नहीं मिलेगी? इसका अन्तिम उत्तर यह है कि केवल परम्परा से क्रियाधारण करनेवाले पदार्थ में ही अधिकरण-संज्ञा सावकाश होती है, अन्यत्र नहीं। कर्ता और कर्म इसमें
१. 'असति ह्याधारे कर्तृकर्मणी क्रियोपकारं न प्रतिपद्येयातामिति तयोराधार उपकुर्वन् क्रियामपि तत्स्थामुपकरोति' ।
-हेलाराज ३, पृ० ३४८ २. 'कारकाणां च क्रियानिमित्तत्वं यथा तथापि भवदाश्रीयत इति व्यवधानेन क्रियोपकारकत्वमविरुद्धम् ।
-वहीं